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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
पन्द्रहवाँ अध्याय
श्रोत्रं चक्षु: स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । व्याख्या- जैसे कोई व्यापारी किसी कारणवश एक जगह से दुकान उठाकर दूसरी जगह लगाता है, ऐसे ही जीवात्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाता है और जैसे पहले शरीर में जाने पर (वही स्वभाव होने से) विषयों का सेवन करने लगता है। इस प्रकार जीवात्मा बार-बार विषयों में आसक्ति के कारण ऊँच-नीच योनियों में भटकता रहता है। कारण कि विषयों का सेवन करने से स्वयं की गौणता और शरीर-संसार की मुख्यता हो जाती है। इसलिये स्वयं भी जगद्रूप हो जाता है[1]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 7।13)
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