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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
पन्द्रहवाँ अध्याय
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् । व्याख्या- शरीर को छोड़कर जाना, दूसरे शरीर में स्थित होना और विषयों को भोगना-तीनों क्रियाएँ अलग-अलग हैं, पर उनमें रहने वाला जीवात्मा एक ही है-यह बात प्रत्यक्ष होते हुए भी अविवेकी मनुष्य इसको नहीं जानता अर्थात अपने अनुभव को महत्त्व नहीं देता। कारण कि तीनों गुणों से मोहित होने के कारण वह बेहोश-सा रहता है[1]। भगवान ने पिछले श्लोक में पाँच क्रियाएँ बतायी थीं-सुनना, देखना, स्पर्श करना, स्वाद लेना तथा सूँघना, और इस श्लोक में तीन क्रियाएँ बतायी हैं- शरीर को छोड़कर जाना, दूसरे शरीर में स्थित होना तथा विषयों को भोगना। इन आठों में कोई भी क्रिया निरन्तर नहीं रहती, पर स्वयं निरन्तर रहता है। क्रियाएँ तो आठ हैं, पर इन सब में स्वयं एक ही रहता है। इसलिये इनके भाव और अभाव का, आरम्भ और अन्त का ज्ञान सब को होता है। जिसे आरम्भ और अन्त का ज्ञान होता है, वह स्वयं नित्य होता है- यह नियम है। अनेक अवस्थाओं में स्वयं एक रहता है और एक रहते हुए अनेक अवस्थाओं में जाता है। यदि स्वयं एक न रहता तो सब अवस्थाओं का अलग-अलग अनुभव कौन करता? परन्तु ऐसी बात प्रत्यक्ष होते हुए भी विमूढ़ मनुष्य इस तरफ नहीं देखते, प्रत्युत ज्ञानरूपी नेत्रों वाले योग मनुष्य ही देखते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 7।13)
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