गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 302

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

पन्द्रहवाँ अध्याय

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ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: ।
मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥7॥

इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा (स्वयं) मेरा ही सनातन अंश है; परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है (अपना मान लेता है)।

व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक में ‘ममैवांशः’ पद में ‘एव’ कहने का तात्पर्य है कि जीव केवल भगवान का ही अंश है, इसमें प्रकृति का अंश किंचिन्मात्र भी नहीं है। जैसे शरीर में माता और पिता -दोंनों के अंश का मिश्रण होता है, ऐसे जीव में भगवान और प्रकृति के अंश का मिश्रण (संयोग) नहीं है, प्रत्युत यह केवल भगवान का ही अंश है। अतः इसका सम्बन्ध केवल भगवान के साथ है, प्रकृति के साथ नहीं। प्रकृति के साथ सम्बन्ध तो यह खुद जोड़ता है।

प्रकृति के कार्य स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर के साथ अपना सम्बन्ध मानना ही अनर्थ का कारण है। जीव शरीर को अपनी तरफ खींचता है (कर्षति) अर्थात उसे अपना मानता है, पर जो वास्तव में अपना है, उस परमात्मा को अपना मानता ही नहीं! यही जीव की मूल भूल है।

हमारा सम्बन्ध परमात्मा के साथ है- ‘ममैवांशो जीवलोके’, इसलिये हम परमात्मा में ही स्थित हैं। परन्तु शरीर-इन्द्रियाँ-मन- बुद्धि का सम्बन्ध अपरा प्रकृति के साथ है, इसलिये वे प्रकृति में ही स्थित हैं- ‘प्रकृतिस्थानि’। शरीर के साथ हमारा मिलन कभी हुआ ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं, हो सकते ही नहीं। हमसे दूर-से-दूर कोई वस्तु है तो वह शरीर है और समीप-से-समीप कोई वस्तु है तो वह परमात्मा है। परन्तु शरीर को मै।, मेरा और मेरे लिये मानने के कारण मनुष्य को उलटा दिखता है अर्थात शरीर तो समीप दिखता है, परमात्मा दूर! शरीर तो प्राप्त दिखता है, परमात्मा अप्राप्त!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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