गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
भक्ति-योग
भगवान को सर्वज्ञ, सर्व-शक्तिमान, सर्व-नियन्ता, सृष्टि का कर्ता व हरता मानने से उनके प्रति स्वभावतः भक्ति और अनुराग, निर्भरता तथा आत्म समर्पण होता है। आत्म समर्पण कर देने से शान्त-रस का लाभ होता है, और शांत-रस का लाभ हो जाने पर शीतोष्ण तथा सुख-दुःख, मानापमान, सिद्धि-असिद्धि, जय-पराजय, स्तुति-निन्दा, हर्ष-शोक आदि सभी अवस्थाओं में मन प्रशान्त रहता है और प्रशान्त मन से भक्ति व उपासना होती है। अस्थिर व चंचल-मन से उपासना नहीं होती। उपासना करने के दास्य, सख्य, वात्सल्य व मधुर यह चार भाव प्रधान हैं।
उपासना करने की
‘उपासना’ शब्द का अर्थ: उप = समीप + असन = बैठना, समीप बैठना, निकट जाना, सान्निध्य होना होता है। अविद्या का आवरण हटाकर ज्ञान का आवरण ग्रहण करने से या ज्ञान का आश्रय लेने से उप + आसन अर्थात् ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त होता है। इस उप + आसन (सान्निध्य) के प्राप्त हो जाने पर उपासक स्वयं भी अपने आप से हट जाता है। भगवान का प्रिय हो जाता है और परम गति पाता है। उपासक - जो व्यक्ति अपने उपास्य देव में तल्लीन होकर अपना स्वयं का समावेश उसमें करने का प्रयत्न करता है वह उपासक कहा जाता है। उपासक कामना, बुद्धि, इन्दियाँ आत्मा, शरीर आदि सभी को उपास्य देव के अर्पण कर उसमें परायण हो जाता है। श्रद्धा मनोयोग, स्थिरिता व दृढ़ भावना के अभाव में पूजन, अर्चना, ध्यान, भक्ति व अन्य सभी प्रकार के नियमोपनियम व्यर्थ व निरर्थक होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मित्र
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