गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 815

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-12
भक्ति-योग
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भगवान को सर्वज्ञ, सर्व-शक्तिमान, सर्व-नियन्ता, सृष्टि का कर्ता व हरता मानने से उनके प्रति स्वभावतः भक्ति और अनुराग, निर्भरता तथा आत्म समर्पण होता है। आत्म समर्पण कर देने से शान्त-रस का लाभ होता है, और शांत-रस का लाभ हो जाने पर शीतोष्ण तथा सुख-दुःख, मानापमान, सिद्धि-असिद्धि, जय-पराजय, स्तुति-निन्दा, हर्ष-शोक आदि सभी अवस्थाओं में मन प्रशान्त रहता है और प्रशान्त मन से भक्ति व उपासना होती है। अस्थिर व च‌ंचल-मन से उपासना नहीं होती। उपासना करने के दास्य, सख्य, वात्सल्य व मधुर यह चार भाव प्रधान हैं।

  • दास्य-भाव की उपासना में उपासक स्वयं को दास व सेवक मानता है, तथा उपास्य देव को अपना स्वामी या प्रभु। इस भावना में उपासक अपने उपास्य देव का अंगरूप बन जाता है। उसकी कोई स्वतन्त्र या व्यक्तिगत इच्छा नही रहती प्रभु की इच्छा ही उसकी इच्छा होती है।
  • सख्य-भाव के उपासक उपास्य देव को सखा[1] भाव में उपासते हैं। उनका यह भाव स्वाभाविक होता है है।
  • वात्सल्य-भाव के उपासक अपने उपास्य देव की भावना पुत्र-रूप में करके पुत्र की भाँति उसे प्रेम-पूर्वक स्नान-भोजनादि कराकर सेवा करते हैं।
  • मधुरोपासना में उपासक ध्यान, चिन्तन, कीर्तन तथा सेवा-पूजा में सदा तन्मय रहता है। यह देहाभिमान रहित प्रेम साधक सहचरी भाव होता है।

उपासना करने की

  1. वैदिक विधि;
  2. ताँत्रिक विधि;
  3. पौराणिक विधि; और
  4. प्रेमयुक्त या अनुरागात्मिका विधि; यह चार प्रकार की विधियाँ हैं।
  • (1) वैदिक विधि का विस्तृत वर्णन ‘गोपालतापिनी उपनिषद्’ में है;
  • (2) तान्त्रिक उपासना का वर्णन नारद-पंचरात्र क्रमदीपिका, गौतमीय तन्त्र आदि तन्त्र-ग्रन्थों मिलता है।
  • (3) पौराणिक उपासना का वर्णन विष्णु पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण आदि पुराण-ग्रन्थों में मिलता है।
  • (4) प्रेमयुक्त विधि में शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य भावों में से किसी एक भाव से प्रेमयुक्त उपासना की जाती है।

‘उपासना’ शब्द का अर्थ: उप = समीप + असन = बैठना, समीप बैठना, निकट जाना, सान्निध्य होना होता है। अविद्या का आवरण हटाकर ज्ञान का आवरण ग्रहण करने से या ज्ञान का आश्रय लेने से उप + आसन अर्थात् ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त होता है। इस उप + आसन (सान्निध्य) के प्राप्त हो जाने पर उपासक स्वयं भी अपने आप से हट जाता है। भगवान का प्रिय हो जाता है और परम गति पाता है।

उपासक - जो व्यक्ति अपने उपास्य देव में तल्लीन होकर अपना स्वयं का समावेश उसमें करने का प्रयत्न करता है वह उपासक कहा जाता है। उपासक कामना, बुद्धि, इन्दियाँ आत्मा, शरीर आदि सभी को उपास्य देव के अर्पण कर उसमें परायण हो जाता है। श्रद्धा मनोयोग, स्थिरिता व दृढ़ भावना के अभाव में पूजन, अर्चना, ध्यान, भक्ति व अन्य सभी प्रकार के नियमोपनियम व्यर्थ व निरर्थक होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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