गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
भक्ति-योग
भक्ति-योग- गीता का उपदेश एक लब्ध-प्रतिष्ठ महारथी वीर योद्धा तथा वेदशास्त्र, साँख्य-शास्त्र पुराण, उपनिषद्, श्रुति-स्मृति इत्यादि समस्त शास्त्रों को जानने वाले अर्जुन को युद्ध-भूमि में ठीक उस समय दिया गया जबकि युद्ध आरम्भ होने वाला ही था। उपदेश कैसा ही हो - विशेषकर ऐसा उपदेश जो श्रोता के विचारों को बिलकुल परिवर्तित करने वाला हो - उसे सुनकर उस पर मनन कर तथा विचार कर उसको ग्राह्य या अग्राह्य मानने के निर्णय करने में समय लगता है। किंतु भगवान कृष्ण के पास इतना समय नहीं था कि अर्जुन के निर्णय करने तक युद्ध स्थगित किया जा सके। अतः श्रीकृष्ण के सामने यही प्रश्न व समस्या थी कि अर्जुन उनके उपदेश को मानकर व स्वीकार करके फौरन युद्ध प्रारम्भ कर दे। यह स्वाभाविक है कि श्रोता यदि अपने आप को उपदेशक से अधिक या उसके समान ही ज्ञानी, पण्डित, नीतिज्ञ, शास्त्रज्ञ था गुणान्वित समझे तो वह उपदेशक के उपदेश को श्रद्धापूर्वक अनसूय मान होकर स्वीकार नहीं करता, किंतु उसमें अपने ज्ञान के अनुसार तर्क वितर्क करता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति अपने बराबर वाले को कोई आज्ञा दे तो उस आज्ञा का पालन करने के लिए न तो वह बाध्य है और न वह बाध्य किया ही जा सकता है। अतः उपदेशक या आज्ञापक को असाधारण व्यक्ति विशेष होना चाहिए ताकि उसके वचनों को उपदेश को, आज्ञा या निर्देश को मान्य समझ कर उसके अनुसार अनुवर्नत किया जा सके। विशिष्टता, विशेषाधिकार, असामान्य शक्ति, अलौकिकता तथा असामान्यता से ही श्रद्धा, मान्यता, भक्ति, सेवा तथा प्रणत भाव व भावना उत्पन्न होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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