गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
भक्ति-योग
भगवान कृष्ण परम-ब्रह्म परमेश्वर के अवतार थे। किंतु लोग उनके वास्तविक स्वरूप को न जानकर उनको साधारण सामान्य मनुष्य ही समझते थे; [1] अर्जुन भी कृष्ण को एक सामान्य मनुष्य ही समझता था, और वैसा ही वर्ताव व व्यवहार उनके साथ करता था। इस वर्ताव व व्यवहार की क्षमा याचना अर्जुन ने विश्वरूप-दर्शन के पश्चात की थी।[2] अतः स्वयं अपने प्रति तथा अपने उपदेश के प्रति श्रद्धा, विश्वास, भक्ति तथा आप्तता की भावना अर्जुन के हृदय में स्थापित करने के लिए मनोविज्ञान के अनुसार भगवान कृष्ण ने अर्जुन के ज्ञानाभिमान वीरताभिमान व अहंभाव को जिस विधि से भंग किया उसका वर्णन इस प्रकार से किया गया है कि- (1) अर्जुन के वीरताभिमान को भंग करने के लिए सबसे पहले भगवान कृष्ण ने अर्जुन को क्लीव, कायर, तथा दुर्बल हृदय वाला बताकर उसे अनार्य स्वभावी बताया [3] अर्जुन ने सिवाय अपनी प्रशंसा के इस प्रकार के निन्दक शब्द संभवतः उस समय तक नहीं सुने थे। अपने विषय से “अनार्यजुष्टम, क्लैव्यं, क्षुद्र., हृदय दौर्बल्य” आदि सुनने का यह पहला मौका था कि जिनको सुनकर उसे यह भावना उत्पन्न हुई कि इस प्रकार के भर्त्सनात्मक तथा ताड़नात्मक शब्द भी उसको कहने वाला कोई है और यह शब्द वही व्यक्ति कह सकता है जो विशिष्ट, महान तथा इस प्रकार कहने की क्षमता रखता हो। (2) अर्जुन के ज्ञानाभिमान को दूर करने के लिए यह कह कर कि - ‘अशोच्यानन्व शोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे’ कहकर कृष्ण ने अर्जुन को अज्ञानी कहा, और उसके मस्तिष्क में ज्ञान-अज्ञान का द्वन्द निरूपित करके उसे यह सोचने व विचारने के विकल्प में डाल दिया कि ‘वह ज्ञानी है या अज्ञानी।[4] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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