गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
ज्ञान-कर्म-संन्यास योग
(3) कूर्मावतार परम ब्रह्म परमेश्वर भगवान विष्णु ने कूर्म-अवतार भी कृतयुग में दैत्यों का दमन करने के लिए धारण किया था जिसका सम्बन्ध सुविश्रुत एवं सर्वविदित पुराण गाथा “समुद्र-मन्थन” से है। देवताओं और असुरों इन परस्पर शत्रु पक्षों ने मिलकर समुद्र-मन्थन क्यों और कैसे किया इसकी कथा बड़ी ही मनोहर व रोचक है। यह कथा इस प्रकार है कि एक विद्याधरी[1]द्वारा दी गई सन्तानक-पुष्पों की अत्यन्त सुगन्धित माला पहिने हुए एक दिन महर्षि दुर्वासा भ्रमण कर रहे थे; उसी समय देवताओं सहित देवराज इन्द्र ऐरावत पर बैठे उधर ही आए और दुर्वासा ऋषि ने वह सुगन्धित सन्तानक-पुष्पों की माला देवराज को दे दी। इन्द्र ने उस माला को ऐरावत के मस्तक पर डाल दी और ऐरावत ने उस माला को अपनी सूँड़ में लेकर जमीन पर डाल दी। दुर्वासा ने इसको अपना अपमान समझा और इन्द्र को शाप दिया कि उसका वैभव नष्ट हो जावेगा और त्रिभुवन श्रीहीन हो जायगा। विष्णुपुराण में लिखा है किः- “मया दत्तामिमां मालां यस्मान्न गहु मन्यसे। दुर्वासा शाप के कारण इन्द्र सहित तीनों लोकों के वृक्ष-लतादि श्रीहत तथा विनष्ट होने लगे, त्रिलोकी के सत्त्व-ही एवं श्री-हीन से प्रोत्साहित हो असुर देवताओं को पीड़ित करने लगे, स्वर्ग दानवों का क्रीड़ास्थल बन गया। असुरों के आतंक से आतंकित होकर इन्द्र-वरुणादि समस्त देवगण त्राण के लिए चतुरानन ब्रह्मा के पास सुमेरु पर्वत पर गए। ब्रह्मा उन समस्त देवताओं को विष्णु भगवान के पास वैकुंठ में ले गए। विष्णु भगवान ने जरा-मरण-निवारिणी-सुधा को उस समय अपेक्षित बताया और कहा कि यह सुधा समुद्र का मन्थन करने से प्राप्त होगी किन्तु यह मन्थन कार्य असुरों की सहायता बिना सम्पन्न नहीं हो सकता अतः असुरों से इस कार्य के लिए सन्धि करना आवश्यक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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