गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 392

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-4
ज्ञान-कर्म-संन्यास योग
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भगवान विष्णु के आदेशानुसार असुरों से सन्धि करने के अभिप्राय से देवराज इन्द्र असुराधिप बलि के पास गया; अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र-मन्थन में देवताओं के साथ सहयोग करने को कहा और अमृत-लाभ में देवताओं और असुरों का समान भाग होने का वचन दिया। सुरेन्द्र के इस आश्वासन पर दैत्यराज बलि ने अपने सेनापति शम्बर, अरिष्टनेमी, और त्रिपुरासुर सहित सुरेन्द्र के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। मन्दराचल पर्वत समुद्र में डाला गया, वासुकि सर्प मथानी बनाया गया जिसे एक ओर से देवता और दूसरी ओर से असुर खैंचकर समुद्र को मथने लगे किन्तु समुद्र के गहरा होने के कारण पर्वत समुद्र में डूबने लगा तो उस समय देवताओं का कार्य पूरा करने के लिए भगवान विष्णु ने कूर्म का रूप धारण कर पर्वत को अपनी पीठ पर रख लिया जिससे पर्वत ऊँचा उठ गया और मन्थन कार्य सम्पन्न हुआ।

समुद्र मन्थन से लक्ष्मी, अमृत, धन्वन्तरी, विष, ऐरावत, कामधेनु, उच्चै:श्रवा, कल्पवृक्ष, कौस्तुभमणि आदि समुद्र से निकले। देवताओं से अमृत को असुरों ने छीन लिया। देवता चिन्तित हो विचारने लगे कि यदि अमृत असुरों ने पी लिया तो यह अमर हो जाएँगे। सर्वान्तरयामी सर्वेश्वर प्रभु की माया अपरम्पार है। उसी समय वहाँ एक अत्यन्त लावण्यमयी रमणी प्रगट हुई जिसे देखकर देवता और असुर सब ही मोहित व मुग्ध हो गए। उस मोहिनी रूपा रमणी पर मोहित व मुग्ध होकर असुरों ने उस मोहिनी को अमृत बाँटने के लिए मध्यस्थ बनाया और अमृत-कलश मोहिनी को दे दिया। मोहिनी जब अमृत देवताओं में बाँट रही थी तो छाया-पुत्र राहू देव-रूप धारण कर सूर्य और चन्द्रदेव के पास बैठ गया और मोहिनी से अमृत ले उसे पी गया। सूर्य और चन्द्रदेव ने राहू की इस करतूत को देख लिया और दोनों ने मोहिनी-रूपधारी प्रभू को संकेत से समझा दिया, राहू अमृत को कंठ से नीचे निगलने भी नहीं पाया था कि प्रभु ने चक्र से राहू का मस्तक काट डाला। राहू का यह छल असुरों द्वारा प्रतिज्ञा-भंग एवं विश्वासघात करना था। किन्तु फिर भी समस्त असुर इससे अत्यन्त कुपित हो देवताओं से भयंकर युद्ध करने लगे। भगवान नारायण द्वारा सुदर्शन चक्र का प्रयोग करने से असुर भयभीत हो भाग गए। इस प्रकार भगवत कृपा से अमृत देवताओं के हाथ लगा। यह है कूर्मावतार धारण करने की कथा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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