गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
सांख्य-योग
शास्त्रों में धर्म के 30 लक्षण बताए गए हैं- सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, अचित-अनुचित का विचार, मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, संतोष, समदर्शिता, महात्माओं की सेवा, भोगों से निवृत्ति, अभिमानपूर्ण प्रयत्नों से घृणा, मौन, आत्मचिन्तन, प्राणीमात्र में आत्मबुद्धि, सर्वात्म भगवान् के नाम का[1] श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवा, पूजा, वन्दना करना, उनके प्रति दास्य, सख्य और आत्म समर्पण भाव रखना- यह तीस प्रकार का आचरण सभी मनुष्यों के लिए परमधर्म कहा गया है। अधर्म की पाँच शाखाएँ कही गई हैं- विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल। जिस कार्य को धर्म-बुद्धि से करने पर भी स्वकीय धर्म में बाधा पड़े वह “विधर्म” कहाता है। किसी अन्य के द्वारा अन्य के लिए ही उपदिष्ट किया हुआ धर्म “परधर्म” होता है। मनुष्य अपने आश्रम के विपरीत स्वेच्छा से जिसे धर्म मान लेता है, वह “आभास” है। पाखण्ड या दम्भ का नाम “उपमा या उपधर्म” है। शास्त्र के वचनों का अर्थ दूसरे प्रकार का कर देना “छल” कहलाता है। धर्मज्ञ पुरुष अधर्म की इन पाँचों शाखाओं का त्याग कर देते हैं। महाभारत युद्ध करने लिए अर्जुन की बुद्धि या अन्तःकरण साक्षी नहीं दे रहे थे इसी कारण उसने उस युद्ध को पाप या अधर्म बताया [3] आधिभौतिक व व्यावहारिक दृष्टि से उसने राज्य-लाभ को त्यागकर भिक्षा माँगना भी उत्तम समझा, किन्तु पारलौकिक दृष्टि से अर्जुन को इस बात का भी विचार था कि उस युद्ध का असर उसकी आत्मा पर श्रेयस्कर होगा या नहीं, अतः वह जानना चाहता था कि जो युद्ध-कर्म वह करने को है वह धर्म है या अधर्म अथवा पुण्य है या पाप। अर्जुन आधिभौतिक सुख पाने का इच्छुक नहीं था वह तो आत्म-कल्याण चाहता था। यह मन्तव्य अर्जुन ने अध्याय 1 श्लोक 32 से 35 में प्रगट किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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