गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
वसुसेन[1] की दानशीलता का ज्वलन्त उदाहरण जो महाभारत में मिलता है, वह यही है कि जब देवराज इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन का हित करने के लिये ब्राह्मण वेष में वसुसेन के अंग-रक्षक आवरण, कुण्डल-कवच का भिक्षार्थी हुआ तो वसुसेन ने सहर्ष वह आवरण अपने शरीर से अलग करके दे दिया। इस त्याग और दानशीलता से प्रसन्न होकर इन्द्र ने भी वसुसेन को एक ऐसी अमोघ शक्ति प्रदान की जिसका देव, असुर, गंधर्व या मानव में किसी भी एक पर प्रयोग करने पर वह व्यर्थ नहीं हो और निश्चयपूर्वक जय लाभ हो। इस घटना के पश्चात् वसुसेन “कर्ण” कहलाने लगा और “कर्ण” नाम से प्रख्यात हुआ। दुर्योधन ने कर्ण के पराक्रम एवं वीरता को देखकर उसे अंगदेश का राजा बना दिया और कर्ण “अंगराज” कहलाने लगा। माद्री का भाई एवं मद्रदेश का राजा शल्य महाभारत-युद्ध में कर्ण का सारथी बना और कर्ण के रथ को दलदल में फँसाकर कर्ण का वध अर्जुन से करा दिया। युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन का जन्म:- सन्तानोपत्ति हेतु पाण्डु द्वारा अनुमति व आज्ञा प्राप्त होने पर दुर्वासा मुनि द्वारा दीक्षित मन्त्र-से कुन्ती ने धर्म, पवनदेव एवं इन्द्र का आह्वान किया, जिसके फलस्वरूप क्रमानुसार धर्म से युधिष्ठिर, पवन देव से भीम, तथा देवराज इन्द्र से अर्जुन उत्पन्न हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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