संक्षिप्त कृष्णलीला पृ. 16

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अर्जुन को उपदेश

अर्जुन को उपदेश

युद्धभूमि में पहुँकर अर्जुन ने भगवान् से अपना रथ दोनों सेनाओं के मध्य ले चलने को कहा। वहाँ पहुँचकर अर्जुन ने प्रतिपक्ष में अपने ही सगे-सम्बन्धियों-गुरुजनों को देखा। वे मोहित होकर विषादग्रस्त हो गये। उनके मन में कायरतापूर्ण वैराग्य उत्पन्न हो गया।

अपने शिष्य की यह स्थिति देखकर भगवान् श्रीकृष्ण उपदेशक बन गये। उन्होंने कहा-‘अर्जुन! तुम जिनसे युद्ध न करने की बात कर रहे हो, वे सब पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। तुम्हें तो बस, निमित्त बनना है। युद्ध करना क्षत्रिय-धर्म है। जो व्यक्ति अपने धर्म का पालन नहीं करता, उसे कहीं भी, किसी भी समय शान्ति नहीं मिल सकती। तुम मनुष्य हो तो तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल की चिन्ता करने की तुम्हें आवश्यकता नहीं। तुम मेरी शरण में आ जाओ और मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो।’ इसी प्रकार की तमाम ज्ञानपूर्ण बातों से प्रभु श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मिथ्या मोह से दूर किया तथा उन्हें अपना विश्वरूप दिखाकर आश्वस्त किया और युद्ध के लिये उद्यत किया। अर्जुन को भगवान् द्वारा दिया गया वह उपदेश ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के रूप में आज भी प्रसिद्ध एवं प्रासंगिक है।

अन्ततः युद्ध प्रारम्भ हुआ। कौरव-पक्ष की ओर से पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य, कुलगुरु कृपाचार्य, महान् धनुर्धर कर्ण आदि योद्धा अपनी वीरता का जौहर दिखाने लगे। इधर महाबली भीम, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, धृष्टद्युम्न, घटोत्कच-जैसे पराक्रमी अर्जुन की अगुवाई और भगवान् श्रीकृष्ण के सरंक्षण में शत्रु-सेना को गाजर-मूली की तरह काटने लगे। अठारह दिनों तक यह महासंग्राम चला। असंख्य योद्धा काल के गाल में समा गये। पाण्डवों की विजय हुई। भागकर छिपे दुर्योधन को भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेरणा से महाबली भीम ने ललकार कर मार डाला। धृतराष्ट्र को अपनी भूल का पश्चात्ताप हुआ। भगवान् के शरणागत पाण्डवों को राज्य-सुख मिला।

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