गोकुल का आनन्दनन्दबाबा का आँगन दो-दो शिशुओं की किलकारियों से चहक उठा था। मैया यशोदा का साँवला-सलोना और माता रोहिणी का कर्पूर-गौर शिशु। एक दिन यदुवंशियों के कुल-पुराहित गर्गाचार्य जी आये। उन्होंने दोनों शिशुओं का नामकरण किया। रोहिणी-नन्दन ‘बलराम’ हुए और यशोदा के लाल ‘श्रीकृष्ण’। गर्गाचार्य जी ने बता दिया कि ये कोई साधारण बालक नहीं हैं। बलराम यदि शेषावतार हैं तो श्रीकृष्ण स्वयं साक्षात् परब्रह्म। धरती से दुष्टों का बोझ उतारने के लिये ही इन्होंने मनुष्य रूप में अवतार लिया है। गोकुल का आनन्द बढ़ाते हुए दोनों शिशु बड़े होने लगे। उनकी नटखट शरारतें सबका मन मोह लेतीं। नन्दबाबा के आँगन में वे कभी घुटनों के बल चलते हैं तो कभी माताओं की गोद में बैठने के लिये मचल पड़ते हैं। कभी आपस में लड़ बैठते हैं, तो कभी परस्पर दुलार भी दिखाने लगते हैं। श्रीकृष्ण की चंचलता देखकर तो स्वयं चंचलता भी लज्जित हो जाती है। अपनी परछाई मणिमय आँगन में देखकर वे उसे पकड़ने के लिये आतुर होते हैं और असफल होने पर ठुनकने लगते हैं। आकाश में उगे हुए चन्द्रमा को खिलौना समझ मैया से उसे लाने की जिद करते हैं और जिद पूरी न होने पर रोने लगते हैं। मैया यशोदा को परात में पानी भरकर आँगन में रखना पड़ता है और उसमें चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को देखकर ही बालक श्रीकृष्ण को कुछ संतोष होता है। गोकुल-निवासी गोप-गोपियों की भीड़ नन्दबाबा के भवन में अकारण भी जुटी रहती है, केवल श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की एक झलक पाने के लिये। उन्हें अपने घर की सुध-बुध बिसर गयी है। वैसे भी जिस रूप की छटा बड़े-बडे़ देवताओं, योगियों-मुनियों तक को अभिभूत कर देती है, उससे साधारण गोप-गोपियाँ कैसे मन्त्र-मुग्ध न हों? आज तो महादेव शंकरक भी प्रभु के बालरूप की झलक प्राप्त करने गोकुल में नन्दबाबा के द्वार आ पहुँचे। गोकुल के आनन्द की सीमा कहाँ! |
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