संक्षिप्त कृष्णलीला पृ. 2

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भगवान् का प्राकट्य

भगवान् का प्राकट्य

माता देवकी के इस आठवें गर्भ के प्रसव का समय जैसे-जैसे समीप आ रहा था, वैसे-वैसे उनकी शोभा बढ़ती जा रही थी। उनका तेज देख कंस को भी विश्वास हो गया था कि यह गर्भ निश्चय ही उसका काल है। उसने कारागार पर पहरा और कड़ा कर दिया।

भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि थी। बुधवार की रात आधी बीत चुकी थी। पूर्व दिशा में चन्द्रमा का उदय होने वाला था। सहसा कारागार की वह कोठरी, जिसमें वसुदवे-देवकी कैद थे, प्रकाश से भर उठी। परम कृपालु भगवान् अपने चतुर्भुज रूप में प्रकट हो गये। भाव-विभोर होकर वसुदेव जी और माता देवकी प्रभु की स्तुति करने लगे। कंस के भय से त्रस्त माता-पिता को भगवान् ने आश्वस्त किया। माता के कहने पर वे अपना दिव्य चतुर्भुज रूप त्यागकर शिशु रूप में परिवर्तित हो गये। वसुदेव जी से उन्होंने पहले ही कह दिया था-‘आप मुझे गोकुल में नन्द जी के यहाँ पहुँचा दें और उनकी पत्नी यशोदा जी की नवजात पुत्री को यहाँ ले आयें।’

भगवान् की योगमाया के प्रभाव से वसुदेव की हथकड़ी-बेड़ी खुल चुकी थी। कारागार के रक्षक प्रहरी निद्रा के वशीभूत हो गये थे। वसुदेव जी ने एक सूप में भगवान् के उस शिशुरूप को रखा और उन्हें सिर पर उठाकर वे गोकुल की ओर चल पड़े। यमुना जी ने प्रभु-चरणों का स्पर्श कर उन्हें रास्ता दिया। शेषनाग जी अपने फणों का छाता फैलाये मुसलाधार वर्षा से शिशु की रक्षा करने लगे। योगमाया के प्रभाव से माता यशोदा भी अपने तत्काल उत्पन्न पुत्री से अनभिज्ञ गहरी निद्रा में थीं। शिुश रूप प्रभु को उनके समीप सुलाकर और उनकी कन्या को लेकर वसुदेव जी वापस मथुरा लौट आये। उनके कारागार में पहुँचते ही योगमाया का प्रभाव लुप्त हो गया। पुनः हथकड़ी-बेड़ियों से वे आबद्ध हो गये। कन्या-शिशु-रुदन करने लगी। कारागार-रक्षक जग गये और उन्होंने कंस से देवकी के पुत्र उत्पन्न होने का समाचार सुना दिया।

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