संक्षिप्त कृष्णलीला पृ. 6

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कालिय-मर्दन

कालिय-मर्दन

गोकुल में आये दिन होने वाले उत्पादों से भयभीत होकर गोपों सहित नन्दबाबा ने वृन्दावन जाकर बसने का निर्णय लिया। फिर एक दिन सारा ब्रजमण्डल यमुना पार करके वृन्दावन आकर गया। भगवान् श्रीकृष्ण धीरे-धीरे पाँच वर्ष के हो चले थे। बड़े भइया बलराम जी और अन्य ग्वाल-बालों के साथ अब वे भी गायों को चराने जाने लगे।

कंस के दुष्ट सेवकों ने यहाँ भी श्रीकृष्ण का पीछा किया। वत्सासुर बछड़े का रूप धारण कर एक दिन उन गायों के झुण्ड में आ मिला, जिन्हें प्रभु अपने बालसखाओं के साथ चरा रहे थे। उसकी कुत्सित चाल भला सर्वेश्वर से कैसे छिपती? दोनों पिछले पैरों को पकड़कर प्रभु ने उसे हवा में घुमाया और एक वृक्ष की जड़ पर पटक दिया। वत्सासुर के प्राण-पखेरू उड़ गये। इसी प्रकार वकासुर, व्योमासुर तथा अघासुर आदि का भी बालक श्रीकृष्ण ने देखते-देखते संहार कर दिया। गोप-बालकों की श्रद्धा अपने इन अद्भुत पराक्रमी मित्र के प्रति और बढ़ गयी थी।

लोकपितामह ब्रह्मा ने एक बार प्रभु की परीक्षा लेने के लिये सभी गाय-बछड़ों और गोप-बालकों को चुरा लिया। सर्वज्ञ श्रीकृष्ण ने स्वयं ही गायों, बछड़ों और गोप-बालकों का रूप धारण कर लिया। एक वर्ष पश्चात् ब्रह्मा जी अपनी भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए प्रभु के पास आये और ग्वाल-बालों तथा गायों-बछड़ों को लौटाकर प्रभु की स्तुति करते हुए अपने लोक चले गये।

यमुना नदी में कालिय नामक एक विषैला सर्प रहता था। उसके विष के प्रभाव से वह ह्नद का जल सब के लिये उपयोगी हो सके, इस उद्देश्य से भगवान् श्रीकृष्ण एक दिन उसमें कूद पड़े। कालिय के शताधिक फणों को उन्होंने कुचल दिया। उसकी पत्नियों की प्रार्थना से द्रवीभूत होकर प्रभु ने उसे यमुना छोड़कर चले जाने का आदेश दे दिया।

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