संक्षिप्त कृष्णलीला पृ. 5

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ऊखल-बन्धन

ऊखल-बन्धन

श्रीकृष्ण- बलराम अब चलना-फिरना सीख चुके थे। नन्द बाबा के आँगन से बाहर निकलकर अब वे गोकुल की गलियों में घूमने लगे थे। ग्वाल-बालों के साथ खेलना-कूदना और ऊधम मचाना उनकी दिनचर्या बन गयी थी। भगवान् श्रीकृष्ण की शैतानियाँ गोकुलवासियों के मनोरंजन का साधन बनी हुई थीं। प्रभु माखन-प्रेमी थे। घर में माखन कमी थी भी नहीं; किंतु प्रभु को तो अपनी लीलाओं से भक्तजनों को सुख पहुँचाना ही चिर इष्ट रहा है। अतः वे माखन-चोर बन बैठे। साथी ग्वाल-बालों को लेेकर वे किसी भी गोप के घर जा धमकते। खुद माखन खाते, साथियों को खिलाते और बचे हुए माखन को इधर-उधर बिखेर भी देते।

गोपियाँ मन-ही-मन यही चाहती थीं कि नटखट श्याम किसी भी बहाने उनके यहाँ आया करें; किंतु दिखावे के लिये वे उनको डाँटती-धमकातीं तथा उलाहना लेकर मैया यशोदा के पास पहुँच जातीं। यह बात अलग थी कि जब कभी मैया यशोदा श्रीकृष्ण को दण्ड देने के लिये उद्यत होतीं तो तत्काल वे उनका निहोरा करने लगतीं। वस्तुतः मन से तो वे श्यामसुन्दर की भक्त ही थीं।

एक दिन नटखट श्रीकृष्ण की शरारतों से तंग आकर माता यशोदा ने उन्हें ऊँखल में रस्सी लेकर बाँध दिया। प्रभु को तो इसी बहाने किसी का उद्धार करना था। ऊखल को आड़ा करके उन्होंने गिरा लिया और उसे घसीटते हुए उधर चले जिधर अर्जुन के दो वृक्ष आपस में सटे खड़े थे। प्रभु ने स्वयं उन वृक्षों के बीच से निकलकर जैसे ही ऊखल को खींचा, दोनों वृक्ष अरराकर धरती पर आ गिरे। वस्तुतः वे दोनों यक्षराज कुबेर के पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव थे जो देवर्षि नारद के शापवश वृक्ष बन गये थे। प्रभु की स्तुति करके दोनों अपने लोक चले गये। माता यशोदा तो यह दृश्य देखकर स्तब्ध रह गयीं। उन्होंने दौड़कर अपने लाल को गले लगा लिया।

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