संक्षिप्त कृष्णलीला पृ. 8

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मथुरा-गमन

मथुरा-गमन

भक्तजनों को सब प्रकार से आनन्दित करना भगवान् के अवतार का प्रमुख उद्देश्य है। वृन्दावन में रहकर भगवान् श्रीकृष्ण इसी उद्देश्य को चरितार्थ कर रहे थे। उनकी मुरली जैसे ही बजती, जड़-चेतन सभी उसकी मधुर ध्वनि में तन्मय हो जाया करते थे। गोपियाँ तो देह-गेह की भी सुध भुला बैठी थीं, भगवान् के प्रति पे्रम का क्या कहना! वृन्दावन में अहर्निश प्रभु की रासलीला चलने लगी थी।

उधर एक-एक करके अपने सभी सेवकों की मृत्यु का समाचार सुनकर आततायी कंस बौखला उठा था। भगवान् की प्रेरणा से देवर्षि नारद ने उसे बता दिया कि नन्द-यशोदा के घर में पल रहे श्रीकृष्ण ही देवकी के आठवें पुत्र हैं। अब तो कंस की उद्विग्नता चरम सीमा पर पहुँच गयी। उसने वसुदेव-देवकी को पुनः कारागार में डाल दिया और धनुष-यज्ञ के बहाने अक्रूर जी को वृन्दावन इस उद्देश्य से भेजा कि वे जाकर समूचे व्रजवासियों सहित बलराम -श्रीकृष्ण को मथुरा ले आयें। किसी भी तरह श्रीकृष्ण को मार डालना कंस का कलुषित उद्देश्य था।

अक्रूर जी भगवान् श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। प्रभु-दर्शन की इच्छा से वे वृन्दावन पहुँचे। बाबा नन्द से उन्होंने कंस की राजाज्ञा सुनायी। श्रीकृष्ण से भी उन्होंने सब कुछ बता दिया। ‘दुष्ट कंस के संहार में अब विलम्ब नहीं करना चाहिये’- ऐसा विचार कर भगवान् ने मथुरा चलने का निश्चय किया। विरह की सम्भावना से मैया यशोदा और जगज्जननी राधा सहित सारी गोपियाँ व्याकुल हो गयीं। फिर से मिलने का मधुर आश्वासन देकर भइया बलराम के साथ श्रीकृष्ण अक्रूर जी के रथ पर सवार हो गये। नन्दबाबा तथा सारे गोप अपने-अपने साधनों से मथुरा की ओर चल पडे़। यमुना के जल में स्नान करते समय अक्रूर जी को भगवान् ने अपने दिव्य चतुर्भुजरूप का दर्शन कराया। अक्रूर जी कृतार्थ हो गये। शाम होते-होते प्रभु समाज-सहित मथुरा पहुँच गये। नगर के बाहर एक रमणीय उपवन देखकर डेरा डाला गया।

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