द्वारकाधीश श्रीकृष्णतेईस अक्षौहिणी सेना लेकर जरासंध ने मथुरा पर आक्रमण कर दिया। भगवान् श्रीकृष्ण बड़े भाई बलराम और अपनी यादवी सेना लेकर मैदान में उतरे। जरासंध को भी पकड़ ही लिया था, किंतु दयालु भगवान् ने उसे छुड़ा दिया। मगध लौटकर जरासंध ने पुनः सैन्य-संगठन करके मथुरा पर आक्रण किया, किंतु इस बार भी उसे मुँह की खानी पड़ी। इस प्रकार अठारह बार जरासंध ने मथुरा पर विजय प्राप्त करने का प्रयास किया और प्रत्येक बार उसे पराजित होना पड़ा। यदुवंशियों को बार-बार संकट में पड़ता देख भगवान् श्रीकृष्ण ने देवशिल्पी विश्वकर्मा जी को एक नये नगर के निर्माण का आदेश दिया। समुद्र के बीचोबीच विश्वकर्मा जी ने द्वारका नामक उस अद्भुत नगर काक निर्माण कर दिया। मथुरावासियों को सोते समय ही भगवान् ने द्वारका पहुँचा दिया। इस बीच कालयवन नाम का एक म्लेच्छ शासक तीन करोड़ सैनिकों के साथ मथुरा को घेर चुका था। श्रीकृष्ण अकेले ही उसके सामने आ पहुँचे। प्रभु की लीलाएँ विचित्र हैं। जिनके डर से काल भी डर जाय, वे प्रभु कालयवन को देखकर भागने लगे। कालयवन पीछा करता रहा। प्रभु श्रीकृष्ण भागते-भागते उस गुफा में घुस गये जिसमें राजा मुचुकुंद गहरी निद्रा में सो रहे थे। प्रभु उनको अपना पीताम्बर ओढ़ाकर स्वयं छिप गये। कालयवन ने उन्हें ही श्रीकृष्ण समझ उनको लात मारी। मुचुकुंद की निद्रा भंग हो गयी। देवताओं के वर के प्रभाव से मुचुकुंद की दृष्टि पड़ते ही कालयवन जलकर भस्म हो गया। अपने दिव्य चतुर्भुज रूप का दर्शन भगवान् ने मुचुकुंद को कराया। प्रभु की स्तुति करके मुचुकुंद अपने लोक को चले गये। भगवान श्रीकृष्ण अब द्वारकाधीश बन गये। द्वारका का वैभव इन्द्र की अमरावतीपुरी को भी लज्जित करने वाला था। सर्वत्र सुख-शान्ति का साम्राज्य था। |
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