संक्षिप्त कृष्णलीला पृ. 17

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परमधाम-प्रस्थान

परमधाम-प्रस्थान

प्रभु के अवतार का उद्देश्य धीरे-धीरे पूरा हो गया था। भगवान् श्रीकृष्ण आसुरी शक्तियों की सत्ता को धरती से निर्मूल कर धर्म की सत्ता प्रतिष्ठित कर चुके थे। अब उन्होंने लीला-संवरण का विचार किया, किंतु इससे पूर्व यदुवंशियों की अहंवादिता को भी वे मिटा देना चाहते थे। वास्तव में ‘श्रीकृष्ण हमारे राजा हैं’ ऐसा सोचकर यादवों को अभिमान हो गया था और वे स्वेच्छाचारी हो गये थे। इस मिथ्या अभिमान और स्वेच्छाचार को नष्ट करना प्रभु को आवश्यक प्रतीत हुआ।

द्वारकावासियों को श्रीकृष्ण ने प्रभास-क्षेत्र में जाने का आदेश दिया। प्रभु की इच्छा बलवती होती है। प्रभास-क्षेत्र में द्वारकावासी यदुवंशियों ने कुछ ब्राह्मणों का अपमान किया और ब्राह्मणों ने उन्हें आपस में ही लड़-मरने का शाप दे दिया। यह वस्तुतः भगवान् की इच्छा ही थी। कुछ ही दिनों के अनन्तर सारे यादव सचमुच ही आपस में लड़कर मर-मिटे। शेषावतार बलरामजी ने भी आत्मस्वरूप में स्थित होकर मनुष्य-शरीर छोड़ दिया।

लीला समेटने का संकल्प लेकर भगवान् श्रीकृष्ण एक वृक्ष के नीचे शान्तभाव से बैठ गये। जरा नामक एक बहेलिये ने दूर से उन्हें मृग समझ लिया। उसने बाण छोड़ा, जो आकर प्रभु के बायें पैर के अगूँठे में लगा। निकट आने पर जराने जब प्रभु को देखा तब उसे भारी पश्चात्ताप हुआ। प्रभु-चरणों में गिरकर वह बारम्बार क्षमा-याचना करने लगा। किंतु भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी इच्छा बताकर उसे शरीर स्वर्ग भेज दिया। तदनन्तर स्वयं भी योगधरणा का आश्रय लेकर प्रभु अपने दिव्य गोलोकधाम चले गये।

लीलापुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाएँ अनन्त हैं, उनका यथार्थ वर्णन कर पाने में हजार मुखवाले शेष भी जब असमर्थता का अनुभव करते हैं; फिर हम साधारण जनों की क्या गिनती! हम तो बस उन महानतम प्रभु के चरणों में नतमस्तक होते हैं।

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