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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
पिता के लिये महान् त्यागदेवता और दैत्य दोनों ही इससे प्रेम करते हैं और तो क्या भगवान् के अवतार स्वयं महर्षि परशुराम ने अपने सब दिव्य एवं अमोघ अस्त्र-शस्त्र इसे दे दिये हैं। यह बड़ा ही संयमी, सदाचारी, भगवद् भक्तिनिष्ठ और तत्वज्ञानी है। अब मैं इसे आपको सौंपती हूँ आप ले जाइये। पुत्र के मिलने से शान्तनु को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे देवव्रत को अपने साथ लेकर अपनी राजधानी में लौट आये। अब उनके आनन्द की सीमा नहीं रही। देवव्रत को उन्होंने युवराज बना दिया। सारी प्रजा देवव्रत की सच्चरित्रता और साधुता से प्रसन्न हो गयी। राजा शान्तनु अपने राज्य का सारा भार देवव्रत को सौंपकर स्वच्छन्द विचरने लगे। इस प्रकार चार वर्ष बीत गये। भगवान की लीला जानी नहीं जाती। कब किसके मन में कौन-सी प्रेरणा कर देंगे? कब किसके शरीर द्वारा कौन-सा काम कर लेंगे? यह बात केवल वही जानते हैं। देवव्रत को युवराज बनाकर शान्तनु निश्चिन्त हो गये थे। उनके मन में फिर विषय-वासना उठेगी और वे पुन: संसार के चक्कर में पड़ जायेंगे- यह आशा किसी को भी नहीं थी। अब यही समझा जा रहा था कि इनके पास इतना बड़ा साम्राज्य है, देवव्रत जैसा पुत्र है, अब तो ये केवल भगवान् के भजन में ही अपना समय बितावेंगे, परंतु भगवान् की दूसरी ही इच्छा थी। भगवान् को तो अभी इनका विवाह करवाकर एक महान् वंश की सृष्टि करनी थी और हुआ भी ऐसा ही। एक दिन महाराज शान्तनु घूमते-फिरते यमुना किनारे पहुँच गये। वहाँ पर एक तरह की दिव्य अपूर्व सुगन्ध फैल रही थी। शान्तनु बहुत प्रसन्न हुए और वह सुगन्ध कहाँ से आ रही है इसका पता लगाने लगे। आगे बढ़ने पर जल के किनारे एक परम सुन्दरी कन्या को देखकर सम्राट ने पूछा-'तुम कौन हो और यहाँ किसलिये आयी हो?' कन्या ने उत्तर दिया कि 'मैं दाशराज की पुत्री हूँ तथा यहाँ से नाव द्वारा आगुन्तकों को उस पार पहुँचाती हूँ।' महाराज शान्तनु उसकी सुन्दरता को देखकर उस पर मोहित हो गये और उन्होंने उस कन्या के धर्मपिता निषादराज के पास जाकर अपनी इच्छा प्रकट की। दाशराज ने कहा- 'महाराज! यह तो सभी जानते हैं कि लड़की अपने घर नहीं रखी जा सकती। उसे किसी-न-किसी को देना ही पड़ेगा। देने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है, आप देश के स्वामी हैं। यदि यह लड़की आपकी हो सके तो इससे बढ़कर मेरे लिये सौभाग्य की बात और क्या होगी। आप सत्यवादी हैं। मैं आपके वचनों पर विश्वास करता हूँ। आप-जैसे सत्पात्र को कन्या देने की मेरी हार्दिक इच्छा भी है तथापि मैंने पहले ही एक प्रण कर लिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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