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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
पिता के लिये महान् त्यागयदि आप उसको पूरा कर सकें तो फिर कन्या-दान करने में कोई अड़चन नहीं रह जायगी।' शान्तनु ने पूछा-'भाई! तुम्हारा अभिप्राय क्या है? साफ-साफ कहो। तुम्हारी बात सुनकर यदि वह मुझे कर्तव्य जान पड़ेगा और मेरी शक्ति के अन्दर का काम होगा तो मैं उसे अवश्य करुँगा। सामर्थ्य न होने पर लाचारी है।' दाशराज ने कहा- 'प्रभो! मेरा यह निश्चय है कि इसके गर्भ से जो पुत्र होगा वही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। दूसरी किसी रानी के पुत्र को आप राजा नहीं बना सकेंगे।' राजर्षि शान्तनु दाशराज की प्रार्थना नहीं पूरी कर सके, यद्यपि उनका चित्त उस कन्या की ओर आकर्षित हो चुका था। उनके प्राण उसकी ओर बरबस खिंच रहे थे तथापि देवव्रत के प्रेम और कर्तव्य के वश होकर उन्होंने यह बात स्वीकार नहीं की, वे अपनी राजधानी को लौट गये। राजधानी में जाने पर भी राजर्षि शान्तनु उस सुन्दरी कन्या को भूल नहीं सके। रह-रहकर उन्हें उसकी याद आया करती थी। शोक के कारण उनकी दशा सोचनीय हो चली। देवव्रत से उनका शोक न छिपा रहा। उन्होंने एकान्त में जाकर पिता के चरणों की वन्दना की और उनसे पूछा- 'पिताजी सांसारिक दृष्टि से आपकी कहीं कुछ हानि नहीं हुई है? सब राजा आपकी आज्ञा मानते हैं, सभी प्रजा सुखी हैं? आपके शरीर में कोई बीमारी भी नहीं दीख पड़ती, मैं हुष्ट-पुष्ट और प्रसन्न हूँ, फिर आपकी चिन्ता का क्या कारण है? क्या आप मेरे ही बारे में कुछ सोचा करते हैं? यदि यह सत्य है तो आप मुझसे वह बात कहिये। मैंने कई दिनों से ध्यान देकर देखा है कि अब आप घोड़े पर चढ़कर बाहर नहीं निकलते, आपकी कान्ति मलिन होती जा रही है। बदन पीला पड़ रहा है और शरीर शिथिल होता जा रहा है। आपके मन में ऐसी कौन-सी पीड़ा है? आप कृपा करके मुझे बतलाइये, मैं उसे दूर करने की चेष्टा करुँगा।' शान्तनु ने उन्हें कुछ स्पष्ट उत्तर नहीं दिया, केवल इतना ही कहा कि 'बेटा! मेरे केवल तुम्हीं एक पुत्र हो। अस्त्र-शस्त्रों से तुम्हारा बड़ा प्रेम है और युद्ध का व्यसन है। भगवान् न करे तुम पर कोई विपत्ति आवे; परंतु मनुष्य-जीवन का कुछ ठिकाना न देखकर मैं बड़े सोच में रहता हूँ। तुम अकेले ही सौ पुत्रों से भी श्रेष्ठ हो यह समझकर मैं और विवाह नहीं करता और पुत्र भी पैदा नहीं करता।' यद्यपि शान्तनु ने अपने हृदय की बात स्पष्ट नहीं कही तथापि देवव्रत को समझते देर नहीं लगी, वे असाधारण बुद्धिमान थे। उन्होंने अपने पिता के हितैषी बूढ़े मन्त्री के पास जाकर पिता की चिन्ता का कारण पूछा। वहाँ उन्हें सब बातें स्पष्ट मालूम हो गयीं। देवव्रत ने अपने परिवार के बूढ़े क्षत्रियों और मन्त्रियों को लेकर दाशराज के घर की यात्रा की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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