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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
पिता के लिये महान् त्यागदाशराज ने विधिपूर्वक पूजा करके देवव्रत की अभ्यर्थना की और सबका यथोचित सम्मान करके उनसे अपने योग्य सेवा बताने की प्रार्थना की। देवव्रत ने अपने पिता के लिये उसकी कन्या सत्यवती की याचना की। दाशराज ने कहा- 'युवराज! आप भरतवंशियों में श्रेष्ठ हैं।' जब आप स्वयं अपने मुँह से इस सम्बन्ध का प्रस्ताव कर रहे हैं, तब मैं भला कब अस्वीकार कर सकता हूँ। ऐसे प्रशंंसनीय और प्रार्थनीय सम्बन्ध को न स्वीकार करने पर इन्द्र को भी पछताना पड़ेगा। आप जानते हों तो जान लें कि यह मेरी औरस कन्या नहीं है। आप लोग जैसे धर्मात्मा पुरुष राजा उपरिचर की यह अयोनिजा कन्या है और महर्षि पराशर ने कृपा करके इसे सुगन्धमय कर दिया है एवं इसके सारे दोष निकाल दिये हैं। इसके पिता ने भी मुझसे बार-बार कहा था कि इसका विवाह राजर्षि शान्तनु से ही करना। राजर्षि असित् ने यह कन्या माँगी थी, पर मैंने उन्हें देना स्वीकार नहीं किया। मैं कन्या का पिता हूँ, अत: कन्या के हित के लिये मेरा कुछ कहना अनुचित नहीं है, आप मेरी धृष्टता क्षमा करें। आपके पिता को यह कन्या देने में मुझे एक दोष जान पड़ता है, वह है बलवान् से शत्रुता: क्योंकि इस कन्या से जो पुत्र उत्पन्न होगा वह राज्य के लिये आपसे झगड़ा कर सकता है और यह निश्चय है कि जो आपसे शत्रुता करेगा उसका नाश हो जायेगा। देवता, दैत्य, गन्धर्व चाहे जो हो आपके विपक्ष में रहकर जीवित नहीं रह सकता। बस, इसी भय से मैं आपके पिता के साथ इस कन्या का विवाह करने में आनाकानी करता हूँ।' युवराज देवव्रत ने सबके सामने प्रतिज्ञापूर्वक कहा- 'दाशराज! मैं अपने पिता की प्रसन्नता के लिये तुम्हारी इच्छा पूर्ण करुँगा। मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि तुम्हारी कन्या से जो पुत्र पैदा होगा वही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। मैं सत्य कहता हूँ, शपथपूर्वक कहता हूँ। मेरे वचन मिथ्या हो नहीं सकते। ऐसी प्रतिज्ञा करने वाला पुरुष पृथ्वी पर न हुआ है, न होगा। 'देवव्रत की प्रतिज्ञा सुनकर सब क्षत्रियों के मुख से साधु-साधु की आवाज निकल पड़ी। सब एक स्वर से उनकी प्रशंसा करने लगे। परंतु दाशराज को अभी संतोष नहीं हुआ था, वे इससे भी कड़ी प्रतिज्ञा कराना चाहते थे। यदि उन्होंने ऐसी प्रतिज्ञा न करायी होती तो आज संसार में भीष्म की इतनी महिमा नहीं होती। वास्तव में तो उनकी प्रतिज्ञा कराने के कारण ही भीष्म का भीष्म नाम पड़ा। कभी-कभी बाहर से निष्ठुरतापूर्वक क्रिया दीखने पर भी उसके भीतर बड़े महत्त्व की बात रहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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