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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
युधिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ, श्रीकृष्ण की अग्रपूजा, भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण के स्वरुप तथा महत्तव का वर्णन, शिशुपाल-वधसंसार में अनेकों प्रकार के सुख दीखते हैं। उन्हें बहुत रूपों में देखा जा सकता है। शारीरिक, ऐन्द्रियिक, आन्तरिक, बौद्धिक आदि उनके भेद हो सकते हैं। इस जगत् में जिन्हें सबसे अच्छी स्थिति प्राप्त होती है, उन्हें यही सब सुख मिलते हैं। शरीर बलवान हो, इन्द्रियाँ निरोग एवं विषयों का सुख भोगती हों। धन, परिवार, साम्राज्य, मान, प्रतिष्ठा आदि से मन संतुष्ट हो, बुद्धि को विविध वस्तुओं के विज्ञान का बोध हो, राजनीति, समाजनीति आदि में पटुता प्राप्त हो, सब लोग उसकी सम्मति मानते हों तो सांसारिक दृष्टि से कहा जा सकता है कि वह व्यक्ति सुखी है: परंतु सुख की पूर्णता यही नहीं है। इन सब वस्तुओं के साथ, चाहे वे वस्तुएँ भोगे जाने वाले विषयों के रुप में हों या भोगने वाले करणों या करणों के अभिमानियों के रुप में हों, मृत्यु लगी हुई है। देवताओं के प्रसाद से इच्छा-मृत्यु भी प्राप्त हो सकती है, परंतु उसके प्राप्त होने पर भी सुख की सीमा नहीं मिलती। विचार करने पर ऐसा जान पड़ता है कि यदि कदाचित् किसी प्रकार संसार की उपर्युक्त वस्तुएँ स्थायी रुप से प्राप्त हो जायें और मृत्यु भी अपने हाथों में आ जाये तो भी कुछ-न-कुछ कमी बनी ही रहती है, कुछ-न-कुछ अभाव खटकता ही रहता है। इन सब वस्तुओं के पाने पर भी कुछ पाना शेष रह जाता है। संतों ने, शास्त्रों ने इस तत्व पर प्रारम्भ से ही विचार किया है और बड़े सौभाग्य की बात है कि वे इस विषय में सहमत हंम कि इन बाह्य वस्तुओं से शान्ति नहीं मिल सकती, ये संसार के सुख तुच्छ सुख है, क्षणिक सुख हैं। इनमें सुख-शान्ति की आशा करना मरुस्थल में प्रतीयमान जल में प्यास बुझाना है। न आज तक इनसे किसी को सुख हुआ है न होने की आशा है। तब प्रश्न यह होता है कि अन्तत: सुख-शान्ति है कहाँ? बुद्धि के ज्ञातव्य की, मन के प्राप्तव्य की और इन्द्रियों के गन्तव्य की पूर्णता कहाँ है? क्योंकि बिना उसके प्राप्त हुए जीवन सफल नहीं हो सकता। इसका उत्तर एक ही है, वह यह कि अन्तस्तल के भी अन्तर में विराजमान आत्मा के भी आत्मा आनन्दकन्द सच्चिदानन्द भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र को जाना जाये, प्राप्त किया जाये और उनके ही पास पहुँचा जाये। उन्हीं को प्राप्त कर लेन पर इन विषय सुखों के क्षुद्र बिन्दु का अनन्त महासागर प्राप्त हो जाता है और उसके साथ ही सब कुछ प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य यह कि बुद्धि से भगवान् श्रीकृष्ण को जाना जाये, मन उन्हें ही प्राप्त कर ले और इन्द्रियाँ उन्हीं के पास पहुँच जायें। वास्तव में तब हम सब कुछ प्राप्त कर सकेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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