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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
युधिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ, श्रीकृष्ण की अग्रपूजा, भीष्म के द्वाराश्रीकृष्ण के स्वरुप तथा महत्तव का वर्णन, शिशुपाल-वधभीष्म के जीवन में क्या नहीं प्राप्त था। परंतु वह दूसरों की भाँति केवल सांसारिक सुख की ही प्राप्ति मात्र नहीं था, बल्कि वे उनके प्राप्त होने पर भी उनकी ओर से उदासीन रहकर बुद्धि से भगवान् को ही सोचते थे, मन से भगवान् की लीला का अनुभव करते थे और इन्द्रियों से सर्वत्र उन्हीं का स्पर्श प्राप्त करते थे। उनका श्रीकृष्ण से कितना प्रेम था, यह बात उनके जीवन में स्थान-स्थान पर प्रकट होती है। वे श्रीकृष्ण के परम प्रेमी थे, परम तत्वज्ञ थे और परम आज्ञाकारी थे। उनके तत्वज्ञान, प्रेम और आज्ञाकारिता की बात सभी लोगों के लिये आदर्श है और उनके जीवन में हम इसी बात का आदर्श देखना चाहते हैं। धर्मराज युधिष्ठिर की सभी बन गयी। भाइयों का बल-पौरुष और श्रीकृष्ण की सहायता उन्हें प्राप्त थी ही। सच्ची बात तो यह है कि वे श्रीकृष्ण के भक्त थे, उनकी प्रेरणा से उनके लिये किये जाने वाले कर्म राजसूय-यज्ञ की ओर प्रवृत्त हुए। भाइयों ने दिग्विजय किया, श्रीकृष्ण की सहायता से भीम ने जरासन्ध को मारा। सैकड़ों राजा कैदखाने से छूटे, उनकी सुहानुभूति प्राप्त हुई, बड़े विस्तार से राजसूय-यज्ञ हुआ। यज्ञ के अन्तिम दिन जब अतिथि-अभ्यागतों के स्वागत-सत्कार का दिन आया, तब यह प्रश्न उठा कि सबसे पहले किन महानुभाव की पूजा की जाये? उस यज्ञमण्डप में सबसे वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्ध महात्मा भीष्म ही थे। धर्मराज युधिष्ठिर ने उन्हीं से यह निर्णय कराना उचित समझकर पूछा-'पितामह! अब यज्ञ में आये हुए राजाओं को अर्ध्य देने का समय आ गया है, इन उपस्थित महानुभावों से पहले किसकी पूजा की जाये?' भीष्म ने कहा- 'युधिष्ठिर! यहाँ जितने महापुरुष उपस्थित हैं, उनमें तेज, बल, पराक्रम, ज्ञान, विज्ञान आदि बातों में भगवान् श्रीकृष्ण ही सबसे श्रेष्ठ हैं। जैसे सूर्य के प्रकाशित होने पर नक्षत्रों का तेज न केवल नगण्य बल्कि अदृश्य हो जाता है, वैसे ही श्रीकृष्ण के सम्मुख दूसरे लोगों की स्थिति है। तमोमय स्थान को सूर्य की भाँति और निस्तब्ध स्थान को वायु की भाँति भगवान् श्रीकृष्ण ही हमारी सभा को भर रहे हैं। उन्हीं के प्रकाश से सब प्रकाशित और उन्हीं के आनन्द से सब आनन्दित हैं। इसलिये सबसे पहले श्रीकृष्ण की ही पूजा होनी चाहिये।' भरी सभी में इस प्रकार श्रीकृष्ण की महिमा गाकर भीष्म पितामह ने सहदेव को आज्ञा दी कि प्रधान अर्ध्य लाकर भगवान् श्रीकृष्ण को दो। सहदेव ने तत्क्षण आज्ञा का पालन किया। श्रीकृष्ण ने शास्त्र की आज्ञा के अनुसार अपने भक्त पाण्डवों के द्वारा अर्पित अर्ध्य को बड़ी प्रसन्नता से ग्रहण किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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