"भीष्म पितामह -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 95" के अवतरणों में अंतर

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कबूतर ने कहा-'मेरे पास खाने की कोई वस्तु नहीं है। मैं तो रोज ले आता हूँ और इसी प्रकार जीवन-निर्वाह होता है।' फिर कुछ सोचकर उसने कहा-'अच्छा क्षण भर ठहर जाइये, मैं आपके खाने का प्रबन्ध करता हूँ।' उसने फिर आग जलायी और तीन बार उसकी प्रदक्षिणा करके यह कहते हुए आगत में कूद पड़ा कि 'महाशय! आप मेरी सेवा स्वीकार करें।' कबूतर की यह दशा देखकर बहेलिये का क्रूर हृदय पसीज गया। वह अपनी करतूत की निन्दा करता हुआ रोने लगा। उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। उसने अपनी लग्गी, सलाका, पिंजरा आदि फेंक दिया, कबूतरी को छोड़ दिया और अनशन करके शरीर को सुखा देने का निश्चय करके वहाँ से चल पड़ा।
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कबूतर ने कहा- 'मेरे पास खाने की कोई वस्तु नहीं है। मैं तो रोज ले आता हूँ और इसी प्रकार जीवन-निर्वाह होता है।' फिर कुछ सोचकर उसने कहा- 'अच्छा क्षण भर ठहर जाइये, मैं आपके खाने का प्रबन्ध करता हूँ।' उसने फिर आग जलायी और तीन बार उसकी प्रदक्षिणा करके यह कहते हुए आग में कूद पड़ा कि 'महाशय! आप मेरी सेवा स्वीकार करें।' कबूतर की यह दशा देखकर बहेलिये का क्रूर हृदय पसीज गया। वह अपनी करतूत की निन्दा करता हुआ रोने लगा। उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। उसने अपनी लग्गी, सलाका, पिंजरा आदि फेंक दिया, कबूतरी को छोड़ दिया और अनशन करके शरीर को सुखा देने का निश्चय करके वहाँ से चल पड़ा।
  
 
कबूतरी पिंजरे से बाहर निकलकर अपने पति के वियोग में विलाप करने लगी। अपने पति के साथ उसका सच्चा सम्बन्ध था। उसने अपना जीवन सार्थक करने का निश्चय कर लिया। वह भी आग में कूूद पड़ी। दोनों ही विमान पर बैठकर स्वर्ग गये। महात्माओं ने उनकी स्तुति की, देवताओं ने सम्मान किया और वे सुख से रहने लगे। व्याध ने भी उन्हें स्वर्ग जाते समय देखा। वन में दावाग्नि लग गयी और उसमें जलकर वह भी स्वर्ग गया। अतिथि--सत्कार और शरणागत रक्षा के फलस्वरुप न केवल सत्कार और रक्षा करने वालों को ही उत्तम गति प्राप्त होती है, बल्कि उनके द्वारा जिनका सत्कार और रक्षा होती है और उन्हें उत्तम गति प्राप्त करते हुए देखते हैं उनका भी भला ही होता है। अतिथि-सत्कार और शरणागत रक्षा मनुष्य का सर्वोत्तम धर्म है।
 
कबूतरी पिंजरे से बाहर निकलकर अपने पति के वियोग में विलाप करने लगी। अपने पति के साथ उसका सच्चा सम्बन्ध था। उसने अपना जीवन सार्थक करने का निश्चय कर लिया। वह भी आग में कूूद पड़ी। दोनों ही विमान पर बैठकर स्वर्ग गये। महात्माओं ने उनकी स्तुति की, देवताओं ने सम्मान किया और वे सुख से रहने लगे। व्याध ने भी उन्हें स्वर्ग जाते समय देखा। वन में दावाग्नि लग गयी और उसमें जलकर वह भी स्वर्ग गया। अतिथि--सत्कार और शरणागत रक्षा के फलस्वरुप न केवल सत्कार और रक्षा करने वालों को ही उत्तम गति प्राप्त होती है, बल्कि उनके द्वारा जिनका सत्कार और रक्षा होती है और उन्हें उत्तम गति प्राप्त करते हुए देखते हैं उनका भी भला ही होता है। अतिथि-सत्कार और शरणागत रक्षा मनुष्य का सर्वोत्तम धर्म है।
  
[[धर्म]] का स्वरुप बड़ा ही सूक्ष्म है। वह शारीरिक क्रियाओं से प्रारम्भ होकर अध्यात्म के सूक्ष्मतम भाग तक पहुँचाता है। धर्म से अपना जीवन सुधरता है, जाति और समाज का कल्याण होता है। संसार के समस्त जीवों को शान्ति मिलती है, सब लोकों में पवित्रता का संचार होता है। धर्म शरीर को शुद्ध कर देता है, इन्द्रियों में संयम ला देता है, मन का विक्षेप नष्ट कर देता है, बुद्धि विशुद्ध बना देता है। [[आत्मा]] को अपने निश्चल स्वरुप में स्थिर कर देता है और तो क्या कहें, धर्म परमात्मा का स्वरुप है। धर्म से बढ़कर और कुछ नहीं है। यह सारा जगत् धर्म से ही पैदा होता है, धर्म से स्थित है और धर्म में ही समा जाता है।
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[[धर्म]] का स्वरुप बड़ा ही सूक्ष्म है। वह शारीरिक क्रियाओं से प्रारम्भ होकर अध्यात्म के सूक्ष्मतम भाग तक पहुँचाता है। धर्म से अपना जीवन सुधरता है, जाति और समाज का कल्याण होता है। संसार के समस्त जीवों को शान्ति मिलती है, सब लोकों में पवित्रता का संचार होता है। धर्म शरीर को शुद्ध कर देता है, इन्द्रियों में संयम ला देता है, मन का विक्षेप नष्ट कर देता है, बुद्धि विशुद्ध बना देता है। [[आत्मा]] को अपने निश्चल स्वरुप में स्थिर कर देता है और तो क्या कहें, धर्म [[परमात्मा]] का स्वरुप है। धर्म से बढ़कर और कुछ नहीं है। यह सारा जगत् धर्म से ही पैदा होता है, धर्म से स्थित है और धर्म में ही समा जाता है।
  
 
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16:38, 31 मार्च 2018 के समय का अवतरण

श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

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पितामह का उपदेश

कबूतर ने कहा- 'मेरे पास खाने की कोई वस्तु नहीं है। मैं तो रोज ले आता हूँ और इसी प्रकार जीवन-निर्वाह होता है।' फिर कुछ सोचकर उसने कहा- 'अच्छा क्षण भर ठहर जाइये, मैं आपके खाने का प्रबन्ध करता हूँ।' उसने फिर आग जलायी और तीन बार उसकी प्रदक्षिणा करके यह कहते हुए आग में कूद पड़ा कि 'महाशय! आप मेरी सेवा स्वीकार करें।' कबूतर की यह दशा देखकर बहेलिये का क्रूर हृदय पसीज गया। वह अपनी करतूत की निन्दा करता हुआ रोने लगा। उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। उसने अपनी लग्गी, सलाका, पिंजरा आदि फेंक दिया, कबूतरी को छोड़ दिया और अनशन करके शरीर को सुखा देने का निश्चय करके वहाँ से चल पड़ा।

कबूतरी पिंजरे से बाहर निकलकर अपने पति के वियोग में विलाप करने लगी। अपने पति के साथ उसका सच्चा सम्बन्ध था। उसने अपना जीवन सार्थक करने का निश्चय कर लिया। वह भी आग में कूूद पड़ी। दोनों ही विमान पर बैठकर स्वर्ग गये। महात्माओं ने उनकी स्तुति की, देवताओं ने सम्मान किया और वे सुख से रहने लगे। व्याध ने भी उन्हें स्वर्ग जाते समय देखा। वन में दावाग्नि लग गयी और उसमें जलकर वह भी स्वर्ग गया। अतिथि--सत्कार और शरणागत रक्षा के फलस्वरुप न केवल सत्कार और रक्षा करने वालों को ही उत्तम गति प्राप्त होती है, बल्कि उनके द्वारा जिनका सत्कार और रक्षा होती है और उन्हें उत्तम गति प्राप्त करते हुए देखते हैं उनका भी भला ही होता है। अतिथि-सत्कार और शरणागत रक्षा मनुष्य का सर्वोत्तम धर्म है।

धर्म का स्वरुप बड़ा ही सूक्ष्म है। वह शारीरिक क्रियाओं से प्रारम्भ होकर अध्यात्म के सूक्ष्मतम भाग तक पहुँचाता है। धर्म से अपना जीवन सुधरता है, जाति और समाज का कल्याण होता है। संसार के समस्त जीवों को शान्ति मिलती है, सब लोकों में पवित्रता का संचार होता है। धर्म शरीर को शुद्ध कर देता है, इन्द्रियों में संयम ला देता है, मन का विक्षेप नष्ट कर देता है, बुद्धि विशुद्ध बना देता है। आत्मा को अपने निश्चल स्वरुप में स्थिर कर देता है और तो क्या कहें, धर्म परमात्मा का स्वरुप है। धर्म से बढ़कर और कुछ नहीं है। यह सारा जगत् धर्म से ही पैदा होता है, धर्म से स्थित है और धर्म में ही समा जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भीष्म पितामह -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. वंश परिचय और जन्म 1
2. पिता के लिये महान् त्याग 6
3. चित्रांगद और विचित्रवीर्य का जन्म, राज्य भोग, मृत्यु और सत्यवती का शोक 13
4. कौरव-पाण्डवों का जन्म तथा विद्याध्यन 24
5. पाण्डवों के उत्कर्ष से दुर्योधन को जलन, पाण्डवों के साथ दुर्व्यवहार और भीष्म का उपदेश 30
6. युधिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ, श्रीकृष्ण की अग्रपूजा, भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण के स्वरुप तथा महत्तव का वर्णन, शिशुपाल-वध 34
7. विराट नगर में कौरवों की हार, भीष्म का उपदेश, श्रीकृष्ण का दूत बनकर जाना, फिर भीष्म का उपदेश, युद्ध की तैयारी 42
8. महाभारत-युद्ध के नियम, भीष्म की प्रतिज्ञा रखने के लिये भगवान् ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी 51
9. भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण का माहात्म्य कथन, भीष्म की प्रतिज्ञा-रक्षा के लिये पुन: भगवान् का प्रतिज्ञा भंग, भीष्म का रण में पतन 63
10. श्रीकृष्ण के द्वारा भीष्म का ध्यान,भीष्म पितामह से उपदेश के लिये अनुरोध 81
11. पितामह का उपदेश 87
12. भीष्म के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की अन्तिम स्तुति और देह-त्याग 100
13. महाभारत का दिव्य उपदेश 105
अंतिम पृष्ठ 108

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