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− | राजा के लिये एक बात बहुत ही आवश्यक है, उसे सर्वदा सत्य का आश्रय लेना चाहिये। बिना सत्य के आश्रय से उसका कोई विश्वास नहीं करता और परलोक भी मारा जाता है। उसके अन्तरंग मित्र भी शंकित रहते हैं और शत्रु भी उसकी असत्यता घोषित करके लाभ उठाते हैं। जो राजा वीर, धीर, सदाचारी, दानी, शान्त, दयालु, धर्मात्मा, जितेन्द्रिय और हँसमुख होता है, उसकी लक्ष्मी कभी नष्ट नहीं होती। राजा को बहुत सरल अथवा बहुत उग्र नहीं होना चाहिये। सरल का कहीं रौब-दाब नहीं रहता और उग्र से सब भयभीत रहते हैं; उसे असली बात का पता नहीं चलता? राजा का एकमात्र कर्तव्य है धर्म की रक्षा; धर्म की रक्षा में ही प्रजा की रक्षा है। [[धर्म]] की रक्षा इसीलिये है कि उससे प्रजा का हित होता है। प्रजा के सुख-दु:ख को अपना सुख-दु:ख समझना ही राजा का परम कर्तव्य है। राजा को चाहिये कि सर्वदा क्षमा न करे और सर्वदा दण्ड न दे; क्योंकि क्षमा करने से अपराधियों की संख्या बढ़ जाती है और सर्वदा दण्ड ही देने से प्रजा अप्रसन्न हो जाती है। राजा को चाहिये कि सर्वदा अपने आदमियों की परीक्षा लिया करे, प्रत्यक्ष अनुमान, सादृश्य और शास्त्र के द्वारा सबको परखता रहे। किसी भी व्यसन में नहीं | + | राजा के लिये एक बात बहुत ही आवश्यक है, उसे सर्वदा सत्य का आश्रय लेना चाहिये। बिना सत्य के आश्रय से उसका कोई विश्वास नहीं करता और परलोक भी मारा जाता है। उसके अन्तरंग मित्र भी शंकित रहते हैं और शत्रु भी उसकी असत्यता घोषित करके लाभ उठाते हैं। जो राजा वीर, धीर, सदाचारी, दानी, शान्त, दयालु, धर्मात्मा, जितेन्द्रिय और हँसमुख होता है, उसकी लक्ष्मी कभी नष्ट नहीं होती। राजा को बहुत सरल अथवा बहुत उग्र नहीं होना चाहिये। सरल का कहीं रौब-दाब नहीं रहता और उग्र से सब भयभीत रहते हैं; उसे असली बात का पता नहीं चलता? राजा का एकमात्र कर्तव्य है धर्म की रक्षा; धर्म की रक्षा में ही प्रजा की रक्षा है। [[धर्म]] की रक्षा इसीलिये है कि उससे प्रजा का हित होता है। प्रजा के सुख-दु:ख को अपना सुख-दु:ख समझना ही राजा का परम कर्तव्य है। राजा को चाहिये कि सर्वदा क्षमा न करे और सर्वदा दण्ड न दे; क्योंकि क्षमा करने से अपराधियों की संख्या बढ़ जाती है और सर्वदा दण्ड ही देने से प्रजा अप्रसन्न हो जाती है। राजा को चाहिये कि सर्वदा अपने आदमियों की परीक्षा लिया करे, प्रत्यक्ष अनुमान, सादृश्य और शास्त्र के द्वारा सबको परखता रहे। किसी भी व्यसन में नहीं फँसना चाहिये। लोग राजा को किसी व्यसन में फँसाकर अनुचित लाभ उठाना चाहते हैं। महान्-से-महान् विपत्ति के अवसरों पर भी राजा को घबराना नहीं चाहिये। नौकरों के साथ विनोद नहीं करना चाहिये और अपनी सेना को मजबूत रखना चाहिये। मुँह-लगे नौकर मन लगाकर काम नहीं करते, आज्ञापालन में टालमटूल कर देते हैं। गुप्त बात जानने की चेष्टा करते हैं। बड़ी-से-बड़ी चीज माँग बैठते हैं। इस तरह के अनेकों दोष उनमें आ जाते हैं। किनके साथ सन्धि करनी चाहिये और किनसे लड़ना चाहिये, इसका निर्णय अपनी बुद्धि से सोचकर और बुद्धिमान् एवं विश्वासपात्र मन्त्रियों से सम्मति लेकर करना चाहिये। राज्य के सात अंग हैं- स्वामी, मन्त्री,सुह्रद्, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना। इनका विरोधी चाहे कोई कयों न हो, उसका नाश कर देना चाहिये। इसी प्रकार राजाओं के अनेक धर्म हैं। इनकी स्थिति लोगों की रक्षा करने के लिये ही है। |
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16:16, 31 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
पितामह का उपदेशराजा के लिये एक बात बहुत ही आवश्यक है, उसे सर्वदा सत्य का आश्रय लेना चाहिये। बिना सत्य के आश्रय से उसका कोई विश्वास नहीं करता और परलोक भी मारा जाता है। उसके अन्तरंग मित्र भी शंकित रहते हैं और शत्रु भी उसकी असत्यता घोषित करके लाभ उठाते हैं। जो राजा वीर, धीर, सदाचारी, दानी, शान्त, दयालु, धर्मात्मा, जितेन्द्रिय और हँसमुख होता है, उसकी लक्ष्मी कभी नष्ट नहीं होती। राजा को बहुत सरल अथवा बहुत उग्र नहीं होना चाहिये। सरल का कहीं रौब-दाब नहीं रहता और उग्र से सब भयभीत रहते हैं; उसे असली बात का पता नहीं चलता? राजा का एकमात्र कर्तव्य है धर्म की रक्षा; धर्म की रक्षा में ही प्रजा की रक्षा है। धर्म की रक्षा इसीलिये है कि उससे प्रजा का हित होता है। प्रजा के सुख-दु:ख को अपना सुख-दु:ख समझना ही राजा का परम कर्तव्य है। राजा को चाहिये कि सर्वदा क्षमा न करे और सर्वदा दण्ड न दे; क्योंकि क्षमा करने से अपराधियों की संख्या बढ़ जाती है और सर्वदा दण्ड ही देने से प्रजा अप्रसन्न हो जाती है। राजा को चाहिये कि सर्वदा अपने आदमियों की परीक्षा लिया करे, प्रत्यक्ष अनुमान, सादृश्य और शास्त्र के द्वारा सबको परखता रहे। किसी भी व्यसन में नहीं फँसना चाहिये। लोग राजा को किसी व्यसन में फँसाकर अनुचित लाभ उठाना चाहते हैं। महान्-से-महान् विपत्ति के अवसरों पर भी राजा को घबराना नहीं चाहिये। नौकरों के साथ विनोद नहीं करना चाहिये और अपनी सेना को मजबूत रखना चाहिये। मुँह-लगे नौकर मन लगाकर काम नहीं करते, आज्ञापालन में टालमटूल कर देते हैं। गुप्त बात जानने की चेष्टा करते हैं। बड़ी-से-बड़ी चीज माँग बैठते हैं। इस तरह के अनेकों दोष उनमें आ जाते हैं। किनके साथ सन्धि करनी चाहिये और किनसे लड़ना चाहिये, इसका निर्णय अपनी बुद्धि से सोचकर और बुद्धिमान् एवं विश्वासपात्र मन्त्रियों से सम्मति लेकर करना चाहिये। राज्य के सात अंग हैं- स्वामी, मन्त्री,सुह्रद्, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना। इनका विरोधी चाहे कोई कयों न हो, उसका नाश कर देना चाहिये। इसी प्रकार राजाओं के अनेक धर्म हैं। इनकी स्थिति लोगों की रक्षा करने के लिये ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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