कविता भाटिया (वार्ता | योगदान) |
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'''सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-''' | '''सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-''' | ||
− | इस श्लोक का बहुत ही गूढ़ तात्पर्य है। समस्त कारणों के कारण, समस्त ईश्वरों के भी ईश्वर, सबके आदि, स्वयं अनादि स्वयं-[[श्रीकृष्ण|भगवान् श्रीकृष्ण]] एक होने पर भी विविध अवतारों के रूप में जगत् में आविर्भूत होते हैं वे सभी स्वरूपतः एवं तत्तवतः एक हैं। रसागत या विलासगत उनमें कुछ वेशिष्ट्य का तारतम्य होता | + | इस श्लोक का बहुत ही गूढ़ तात्पर्य है। समस्त कारणों के कारण, समस्त ईश्वरों के भी ईश्वर, सबके आदि, स्वयं अनादि स्वयं-[[श्रीकृष्ण|भगवान् श्रीकृष्ण]] एक होने पर भी विविध अवतारों के रूप में जगत् में आविर्भूत होते हैं वे सभी स्वरूपतः एवं तत्तवतः एक हैं। रसागत या विलासगत उनमें कुछ वेशिष्ट्य का तारतम्य होता है। तथापि वे एक ही हैं। उनसें विभिन्नांश के रूप में प्रकटित जीव समूह अत्यन्त सूक्ष्म तत्त्व हैं तथा संख्या में अनन्त हैं- |
<center> <poem>‘बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च। | <center> <poem>‘बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च। | ||
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते।।’<ref>श्वे. उ. 5/9</ref></poem></center> | भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते।।’<ref>श्वे. उ. 5/9</ref></poem></center> |
01:23, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण
श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्वे. उ. 5/9
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