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इस श्लोक का बहुत ही गूढ़ तात्पर्य है। समस्त कारणों के कारण, समस्त ईश्वरों के भी ईश्वर, सबके आदि, स्वयं अनादि स्वयं-[[श्रीकृष्ण|भगवान् श्रीकृष्ण]] एक होने पर भी विविध अवतारों के रूप में जगत् में आविर्भूत होते हैं वे सभी स्वरूपतः एवं तत्तवतः एक हैं। रसागत या विलासगत उनमें कुछ वेशिष्ट्य का तारतम्य होता हैं। तथापि वे एक ही हैं। उनसें विभिन्नांश के रूप में प्रकटित जीव समूह अत्यन्त सूक्ष्म तत्त्व हैं तथा संख्या में अनन्त हैं-
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इस श्लोक का बहुत ही गूढ़ तात्पर्य है। समस्त कारणों के कारण, समस्त ईश्वरों के भी ईश्वर, सबके आदि, स्वयं अनादि स्वयं-[[श्रीकृष्ण|भगवान् श्रीकृष्ण]] एक होने पर भी विविध अवतारों के रूप में जगत् में आविर्भूत होते हैं वे सभी स्वरूपतः एवं तत्तवतः एक हैं। रसागत या विलासगत उनमें कुछ वेशिष्ट्य का तारतम्य होता है। तथापि वे एक ही हैं। उनसें विभिन्नांश के रूप में प्रकटित जीव समूह अत्यन्त सूक्ष्म तत्त्व हैं तथा संख्या में अनन्त हैं-
 
<center> <poem>‘बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च।
 
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भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते।।’<ref>श्वे. उ. 5/9</ref></poem></center>
 
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते।।’<ref>श्वे. उ. 5/9</ref></poem></center>

01:23, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अष्टादश अध्याय

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदत: ।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ॥19॥
गुणों की संख्या करने वाले शास्त्र में ज्ञान और कर्म तथा कर्त्ता गुणों के भेद से तीन-तीन प्रकार के ही कहे गये हैं, उनको भी तू मुझसे भली-भाँति सुन ॥19॥

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥20॥
जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक्-पृथक् सब भूतों में एक अविनाशी परमात्म-भाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तो तू सात्त्विक जान ॥20॥

भावानुवाद- श्रीभगवान सात्त्विक ज्ञान के विषय में बता रहे हैं। ‘एकं भावं’ आर्थात एक ही जीवात्मा नाना प्रकार के फलों को भोगने के लिए क्रम से मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी आदि सभी जीवों में वर्तमान रहता है। नश्वर वस्तुओं के रहने पर भी वह अनश्वर है। वे जीवतात्माएँ परस्पर ‘विभक्तेषु’ अर्थात् भिन्न हैं, तथापि वे ‘एकरूपं’ अर्थात् चित्-जातीय होने के कारण एक समान हैं। कर्म-सम्बन्धी जिस ज्ञान के द्वारा ऐसा दर्शन किया जाता है, वह सात्त्विक ज्ञान है।।20।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

इस श्लोक का बहुत ही गूढ़ तात्पर्य है। समस्त कारणों के कारण, समस्त ईश्वरों के भी ईश्वर, सबके आदि, स्वयं अनादि स्वयं-भगवान् श्रीकृष्ण एक होने पर भी विविध अवतारों के रूप में जगत् में आविर्भूत होते हैं वे सभी स्वरूपतः एवं तत्तवतः एक हैं। रसागत या विलासगत उनमें कुछ वेशिष्ट्य का तारतम्य होता है। तथापि वे एक ही हैं। उनसें विभिन्नांश के रूप में प्रकटित जीव समूह अत्यन्त सूक्ष्म तत्त्व हैं तथा संख्या में अनन्त हैं-

‘बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च।
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते।।’[1]

ये जीव समूह दो प्रकार के हैं- बद्ध और मुक्त, यह पहले ही बताया गया है। ये जीवसमूह संख्या में अनन्त होने पर भी चित्-तत्त्व की दृष्टि से एक समजातीय तत्त्व हैं। वे मनुष्य, देव, पशु, पक्षी आदि विभिन्न योनियों में जन्म लेने पर भी स्वरूपतः कृष्णदास हैं। इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए यहाँ श्रीकृष्ण बता रहे हैं कि देव, दानव, मानव, पशु पक्षी आदि विभिन्न शरीर में नानाविध फलों को भोगने के लिए वर्तमान अनन्त जीवों को चित्-तत्त्व की दृष्टि से अखण्ड, अव्यय, भेदरहित आदि जिस ज्ञान से अनुभव किया जाता है, उसे सात्त्विक ज्ञान कहते हैं।।20।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्वे. उ. 5/9

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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