संक्षिप्त कृष्णलीला पृ. 7

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गोवर्धन-धारण

गोवर्धन-धारण

भगवान् श्रीकृष्ण की अद्भुत लीलाओं को देखकर समस्त गोपों को यह विश्वास तो हो ही गया था कि ये कोई साधारण बालक नहीं हैं। अब उनकी प्रत्येक बातों का वे सम्मान करने लगे थे। देवराज इन्द्र के पूजन की परम्परा वर्षों से व्रजमण्डल में चली आ रही थी। इस वर्ष भी इन्द्रपूजन की तैयारियाँ होने लगीं। प्रभु द्वारा जिज्ञासा प्रकट करने पर नन्द बाबा ने अपनी ओर से उन्हें इस पारम्परिक पूजन का महत्व बताने का प्रयास किया।

श्रीकृष्ण ने प्रस्ताव रखा-‘गोवर्धन पर्वत की हरी-हरी घासों को खाकर हमारी गौएँ तृप्त होती हैं, उन गौओं से प्राप्त दूध-दही-माखन आदि से हमारा पोषण होता है। इसलिये हम सबके असली देवता तो पर्वतराज गोवर्धन ही हैं। पूजन भी हम सबको इन्हीं का करना चाहिये।’

प्रभु के प्रस्ताव का सबने समर्थन किया। देवराज इन्द्र के लिये जुटायी गयी पूजन-सामग्रियाँ गिरिवर गोवर्धन को अर्पित की जाने लगीं। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने ही गोवर्धन का साकार रूप धारण कर नैवेद्य-भोग लगाया, किंतु यह सब देखकर देवराज इन्द्र व्रजमण्डल को ही जलमग्न करने का आदेश दे दिया। फिर क्या था! मुसलाधार वर्षा प्रारम्भ हो गयी। स्वयं भी ऐरावत पर सवार होकर देवराज इन्द्र वृन्दावन-निवासियों पर वज्राघात करने लगे। चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गयी।

इन्द्र की यह धृष्टता देख देव देव श्रीकृष्ण खेल-ही-खेल में गोवर्धन पर्वत को उखाड़ लिया और समस्त गोप गाय-बछड़ों तथा सामान सहित उस पर्वत के नीचे संरक्षित हो गये। सात दिनों तक प्रलयकारी वृष्टि होती रही, किंतु व्रजमण्डल का बाल भी बाँका न हुआ। इन्द्र का गर्व दूर हो गया। प्रभु के चरणों में गिरकर उन्होंने क्षमा-याचना की। कामधेनु के दूध से श्रीकृष्ण का अभिषेक कर देवराज ने उन्हें ‘गोविन्द’ की उपाधि दी और अपने लोक चले गये।

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