कौरव-सभा में विराट् रूपपाण्डवों के वनवास और अज्ञातवास की अवधि पूरी हो चुकी थी। शर्त के अनुसार उन्हें अपना राज्य वापस मिलना चाहिये था, किंतु दुष्ट दुर्योधन कैसे मानता भला? उसने पाण्डवों को उनका अधिकार देने से साफ इनकार कर दिया। उसे समझाने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण ने दूत बनने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। पाण्डवों के दूत बनकर प्रभु हस्तिनापुर आये। दुर्योधन भी प्रभु के प्रभाव से अपरिचित न था। उसने श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने की मंशा से भाँति-भाँति के व्यंजन बनवाये; किंतु प्रभु श्रीकृष्ण व्यंजनों के भूखे तो हैं नहीं, वे तो केवल भाव के भूखे हैं। अतः उन्होंने दुर्योधन का अतिथि बनना अस्वीकार कर दिया। महात्मा विदुर यद्यपि दुर्योधन के ही महामन्त्री थे, तथापि प्रभु-चरणों में उनकी अविचल निष्ठा थी। उनकी अविचल निष्ठा थी। उनकी भक्ति के वशीभूत होकर भगवान् श्रीकृष्ण उनके अतिथि बने। महात्मा विदुर की पत्नी भी भगवान् की अनन्य भक्त थीं। प्रभु जब उनके घर पहुँचे तब विदुरजी घर पर नहीं थे। अकेले विदुर-पत्नी मन-ही-मन भगवत्स्मरण कर रही थीं। सहसा भगवान् श्रीकृष्ण को अपने अतिथि के रूप में पाकर वे भाव-विह्नल हो उठीं। उन्हें अपने देह तक की सुध न रही। बड़े प्रेम से वे प्रभु को एक आसन पर बैठाकर उन्हें केले खिलाने लगीं। प्रेम-भक्ति की तन्मयता की पराकाष्ठा पर पहुँचकर वे श्रीकृष्ण को केले का छिलका तो खिला देती, और गूदे जमीन पर फेंक देतीं। प्रभु श्रीकृष्ण उन छिलकों को खाकर ही परम संतुष्ट हुए। भगवान् श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को बहुत समझाया, किंतु वह मूर्ख बिना युद्ध किये सुई की नोक के बराबर भी भूमि पाण्डवों को देने के लिये तैयार नहीं हुआ। उसने तो भगवान् को कैद भी करना चाहा, किंतु सर्वव्यापी परमात्मा को कोई कैद कैसे कर सकता है भला! दुर्योधन के दुस्साहस के जवाब में श्रीकृष्ण ने उसे अपना भयंकर विराट् रूप दिखाया। भगवान् का विराट् रूप देखकर दुर्योधन की घिग्घी बँध गयी। |
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