संक्षिप्त कृष्णलीला पृ. 15

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पार्थ-सारथि श्रीकृष्ण

पार्थ-सारथि श्रीकृष्ण

भगवान् श्रीकृष्ण धरती से असुरों का बोझ शीघ्र हटा देना चाहते थे। उनकी इच्छा दुर्योधन की हठवादिता में प्रकट हुई। अभूतपूर्व युद्ध की भूमिका बन गयी। दोनों पक्ष अपनी-अपनी तैयारियों में जुट गये। पाण्डवों के साथ धर्म का सम्बल था और दुर्योधन के साथ उसका अभिमान। अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुकूल योद्धाओं को दोनों पक्ष आहूत करने लगा। दूर-दूर के राजाओं को युद्ध में भाग लेने के लिये निमन्त्रण भेजे जाने लगे।

भगवान् श्रीकृष्ण का सहयोग प्राप्त करने की इच्छा से अधर्मी दुर्योधन द्वारका पहुँचा। सर्वज्ञ प्रभु उस समय सो रहे थे। उधर पाण्डवों की ओर से भगवान् के चिर सखा श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन भी उसी समय सहायता माँगने पहुँच गये। श्रीकृष्ण को निद्रा में देख अभिमानी दुर्योधन जहाँ उनके सिरहाने एक आसन पर बैठ गया, वहीं भक्त अर्जुन प्रभु के पाँव की ओर हाथ बाँधे खड़े रहे। भगवान् ने निद्रा-भंग होने पर पहले अर्जुन को ही देखा और आगमन का उद्देश्य पूछा। तमककर दुर्योधन ने अर्जुन से पहले अपनी उपस्थिति की बात कही। भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों को सहायता का आश्वासन देते हुए कहा-‘एक ओर तो मैं रहूँगा; अकेला, निहत्था, युद्ध में शस्त्र उठाऊँगा तक नहीं; और दूसरी ओर मेरी विशाल सेना रहेगी। तुम दोनों को इनमें से जो रुचे, माँग लो।’

अर्जुन ने कहा-‘प्रभो! मुझे तो बस ‘आप’ ही चाहिये, आप भले ही युद्ध न करें।’ मूढ़ दुर्योधन विशाल सेना पाकर ही स्वयं को कृतकृत्य समझ रहा था। उसे क्या पता कि जहाँ धर्म है, वहाँ श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है! अर्जुन ने भगवान् को माँगकर जहाँ अपनी जीत उस दिन सुनिश्चित कर ली, वहीं दुर्योधन की हार भी उसी दिन पक्की हो गयी।

भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन के रथ का सारथि बनना स्वीकार किया। पाण्डवों और कौरवों की विशाल सेनाएँ युद्धभूमि में आमने-सामने डट गयीं। युद्ध के बाजों की ध्वनियों से आकाश गुंजायमान हो उठा।

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