संक्षिप्त कृष्णलीला पृ. 13

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द्रौपदीपर कृपा

द्रौपदीपर कृपा

द्रौपदी पाण्डवों की पत्नी और भगवान् श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त थीं। पाण्डवों के प्रति धृतराष्ट्र-पुत्र दुर्योधन सदैव द्वेष-भाव रखता था। उनकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ का वैभव कपटी दुर्योधन के मन में दाह उत्पन्न करने लगी। पाण्डवों को छल-बल से नीचा दिखाने के लिये दुर्योंधन ने हस्तिनापुर में जुए का आयोजन किया।

जुआ सर्वनाश की जड़ है। ज्येष्ठ पाण्डु-पुत्र युधिष्ठिर जुए में राज्य, भाइयों तथा पत्नी द्रौपदी तक को गँवा बैठे। दुष्ट दुर्योंधन ने मर्यादाओं को ताक पर रख दिया। उसने अपने भाई दुःशासन से द्रौपदी को वस्त्रहीन कर देने के लिये कहा। द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का उसका आदेश सुनकर हस्तिनापुर की सभा काँप उठी, किंतु सभी विवश थे। कुरुवंशी दुःशासन कुरुवंश की ही एक कुलवधू को नंगा करने का प्रयास करने लगा। अबला भक्त का अपमान! भला, कृपालु श्रीकृष्ण कैसे सहते!! वस्त्रावतार हुआ उनका। द्रौपदी की लाज बच गयी। फिर भी, जुए की शर्त के अनुरूप पतियों के साथ दौपदी को भी बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास का कष्ट भोगना पड़ा।

वन में भी जिस-किसी तहर पाण्डवों को संकट में डालना दुर्योधन का एकमात्र लक्ष्य था। उसी के अनुरोध पर एक दिन परम क्रोधी मुनि दुर्वासा अपने दस हजार शिष्यों के साथ पाण्डवों के यहाँ पधारे। उन्होंने ऐसे समय भोजन की माँग की जब पाण्डवों सहित द्रौपती भी भोजन कर चुकी थीं। द्रौपदी के भोजन कर लेने के बाद पाण्डवों का वह अक्षय भोजन-पात्र भी और अधिक भोजन देने में अक्षम हो जाता था जिसे भगवान् सूर्य ने उन्हें दिया था। आखिर द्रौपदी की आर्त पुकार सुन भगवान् श्रीकृष्ण आये और उस भोजन-पात्र में चिपका हुआ साग का एक पत्ता उन्होंने खा लिया। दुर्वासा और उनके शिष्य नदी में स्नान करते हुए बिना भोजन किये ही डकारने लगे और भाग चले। इस प्रकार द्रौपदी और उनके पतियों के प्रत्येक कष्ट का निवारण प्रभु श्रीकृष्ण सदैव करते रहे।

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