संक्षिप्त कृष्णलीला पृ. 9

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कंस-वध

कंस-वध

अगले दिन भगवान् श्रीकृष्ण भइया बलराम और सखाओं सहित नगर-भ्रमण के लिये निकले। कंस का एक धोबी रास्ते में मिला। धुले कपड़े लेकर वह राज दरबार की ओर जा रहा था। श्रीकृष्ण ने उससे अपने लिये तथा अन्य ग्वाल-बालों के लिये कपड़ों की माँग की। धोबी दुष्ट तथा घमंडी था। उसने इनकार तो किया ही, भगवान् को कुछ अपशब्द भी कहा। हथेली के एक ही प्रहार से प्रभु ने उसका काम तमाम कर दिया। उसके साथ के अन्य धोबी अपने-अपने कपड़ों का गट्ठर छोड़ भाग खड़े हुए। सखाओं सहित श्रीकृष्ण ने इच्छानुसार वस्त्रों को धारण कर लिया। एक भक्त दरजी ने काट-छाँट करके कपड़ों को बालकों के अनुरूप बना दिया। रास्ते में ही एक भक्त माली के सुमनोपहार तथा दासी कुब्जा के अंगराग को प्रभु ने स्वीकार किया। कुब्जा का कुब्जत्व दूर कर प्रभु ने उसे सुन्दर युवती बना दिया।

कंस के रंगमण्डप में एक विशाल धनुष रखा था। रक्षकों के देखते-देखते वहाँ पहुँचकर भगवान् श्रीकृष्ण ने वह धनुष तोड़ डाला। यह सुनकर कंस बौखला उठा। दूसरे दिन श्रीकृष्ण को मार डालने के लिये उसने दंगल का आयोजन किया। भइया बलराम के साथ प्रभु वहाँ पहुँचे। प्रवेश-द्वार पर ही कंस ने कुवलयापीड नामक हाथी को खड़ा कराया था। महावत सहित कुवलयापीड को दोनों भाइयों ने मार डाला। अखाड़े में पहुँचकर भगवान् श्रीकृष्ण चाणूर से भिड़े और बलराम जी मुष्टिक से। पलक झपकते ही चाणूर और मुष्टिक की इहलीला समाप्त हो गयी। अब तो कंस पागलों के समान चीख पड़ा-‘अरे, मारो इन दोनों लड़कों को, नन्द को कैद कर लो, वसुदेव को भी मार डालो।’ किंतु वहाँ सुनता कौन था? भगवान् श्रीकृष्ण उछलकर कंस के सिंहासन पर चढ़ गये और उसका केश पकड़कर उन्होंने उसे धरती पर पटक दिया, स्वयं भी वे उसके ऊपर कूद गये। कंस का अन्त हो गया। वसुदेव-देवकी और उग्रसेन को प्रभु ने कारागार से मुक्त कर दिया।

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