संक्षिप्त कृष्णलीला पृ. 10

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संदीपनि मुनि के आश्रम में

संदीपनि मुनिके आश्रम में

भगवान् श्री कृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन को फिर से मथुरा का राजा बनाया। अत्याचारी कंस के शासन से मुक्त होकर मथुरा चैन की साँस लेने लगी। नन्द बाबा तथा अन्य गोपों को समझा-बुझाकर श्रीकृष्ण ने वापस वृन्दावन भेज दिया। माता रोहिणी भी अब मथुरा आ गयीं। वसुदेव जी ने दोनों भाइयों का विधिवत् उपनयन-संस्कार कराया और शिक्षा प्राप्त करने के लिये गुरुदेव सांदीपनि मुनि के यहाँ भेज दिया।

वेद-पुराण आदि सभी जिनके सहज उच्छ्वास ही हैं, भला उन्हें कौन पढ़ा सकता है? किंतु जब भगवान् मनुष्य बन गये हों तब मनुष्यों के संस्कार भी उनको अपनाने ही होंगे। गुरुदेव के आश्रय में दोनों भाई शिक्षा प्राप्त करने लगे। ब्रह्मचारियों-सा वेश, उनके जैसा ही तपस्वी-जीवन और गुरुजी की आज्ञा का पालन करने में निरत रहना यही दोनों भाइयों की दिनचर्या बन गयी थी। यहीं श्रीकृष्ण की मित्रता सुदामा से हुई।

शीघ्र ही प्रभु की शिक्षा पूरी हो गयी। गुरु सांदीपनि का पुत्र कुछ दिनों पहले जल में डूब गया था। गुरुदेव और गुरुपत्नी दोनों प्रभु श्रीकृष्ण के अपरिमित प्रभाव को जानते थे। गुरुदक्षिणा के रूप में उन्होंने श्रीकृष्ण से अपने उस डूबे हुए पुत्र को हो ही माँगा। बडे़ भाई बलराम-सहित श्रीकृष्ण यमलोक पहुँचे। वहाँ से गुरुपुत्र को लाकर उन्होंने गुरुजी की सेवा में समर्पित कर दिया। गुरुपत्नी एवं गुरुदेव सांदीपनि परम प्रसन्न हुए और दोनों भाइयों को ढेर सारा आशीर्वाद देकर उन्होंने अपने आश्रम से विदा किया। श्रीकृष्ण-बलराम वापस मथुरा आ गये।

कंस का वध हो जाने पर उसकी दोनों पत्नियाँ अस्ति और प्राप्ति दुःखी होकर अपने पिता मगधराज जरासंध के पास चली गयीं। क्रूर जरासंध अपने जामाता का बदला लेने के लिये आतुर हो गया। मथुरा पर चढ़ाई करने की तैयारी में वह जुट गया।

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