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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
दूसरा अध्याय
कृष्णरामायिते द्वे ते गोपायन्त्यश्च काश्चन। दो गोपियाँ श्रीकृष्ण और बलराम बनकर उनके-जैसे खेल करने लगीं। कुछ गोपियाँ गोप - बालकों के समान बनकर क्रीड़ा करने लगीं, कुछ बछड़ों का अनुकरण करने लगीं। एक गोपी वत्सासुर बन गयी, दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसे मारने की लीला करने लगी। इसी प्रकार एक गोपी बकासुर बनी और दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसे चीर डालने का भाव दिखाने लगी।।17।। आहूय दूरगा यद्वत् कृष्णस्तमनुकुर्वतीम्। जिस प्रकार श्रीकृष्ण वन में दूर गये हुए गाय-बछड़ों को वंशी बजा-बजाकर बुलाया करते थे, वैसे ही एक गोपी अपने को श्रीकृष्ण समझकर वंशी ध्वनि के द्वारा गायों को बुलाने का भाव दिखाने लगी। उस गोपी की इस वंशी बजाने की लीला को देखकर दूसरी कुछ गोपियाँ ‘वाह-वाह! तुम बहुत ही मधुर मुरली बजा रहे हो’ यों कहकर उसकी प्रशंसा करने लगीं।।18।। कस्यांचित् स्वभुजं न्यस्य चलन्त्याहापरा ननु। श्रीकृष्ण के साथ एक मन हुई एक दूसरी गोपी अपने को श्रीकृष्ण मानकर दूसरी किसी गोपी के गले में बाँह डालकर चलने लगी और कहने लगीं - अरे सखाओं! मैं श्रीकृष्ण हूँ, तुम मेरी यह मनोहर चाल तो देखो।।19।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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