रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 239

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला (पदों में)

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परम प्रेममयी श्रीराधा

परम प्रेममयी श्रीराधा-गोपीजन सब कायब्यूह।
कृष्णप्रेम-परिपूर्ण हृदय सब दिव्य पूर्ण रस-भाव समूह।।
क्षमा-क्रोध, सुख-दुःख, प्रशंसा-निन्दा, मान-नीच अपमान।
जीवन-मृत्यु, विराग-राग, शुचि त्याग-भोग सब, ज्ञानाज्ञान।।
शान्ति-अशान्ति, विवेक-भ्रान्ति सब, हास्य-रुदन, गायन-चीत्कार।
सभी श्याम प्रियतम को लेकर एकमात्र शुचि कर्म-विचार।।
कृष्ण प्रेम-रस-भावित-मति सब कृष्ण मिलन-हित आकुल प्राण।
रहतीं सदा समुत्सुक करने रूप-सुधा-मधु-रस का पान।।
इह-पर के विलास-सुख-भोगों का करके आत्यन्तिक त्याग।
कृष्णप्रेममत्ता थीं वे सब मूर्तिमान प्रियतम-अनुराग।।
पाकर आज अगाध अखण्ड स्वयं रसराज रसार्णवरूप।
महाभावरूपा व्रज-सुन्दरि सुख-सुषमा से हुई अनूप।।
इसीलिये श्रीकृष्ण सच्चिदानन्द पूर्ण परतम भगवान।
भगवत्ता सब भूल रसिकचूड़ामणि रस-शेखर रसवान।।
प्रेम-विवश स्वेच्छामय वे कर सहज प्रेम-बन्धन स्वीकार।
करने लगे गोप-सुन्दरियों का रसमय आदर-सत्कार।।
त्यागपूर्ण रस मधुर देखकर ललचा उठे स्वयं भगवान।
करने लगे स्वयं रस-लोलुप बन वे रस-याञ्चा मतिमान।।
नव-नीरद-नीलाभ श्याम-घन मानो दामिन-दल में आज।
घन-दामिनि, दामिनि-घन अगणित बीच-बीच में रहे विराज।।
दिव्य मिलन का उनको करके दुर्लभ दिव्यानन्द प्रदान।
करने लगे स्वयं उस दिव्य रसामृत शुचि सादर पान।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पद रत्नाकर, पद सं. 265

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