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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
दूसरा अध्याय
मा भैष्ट वातवर्षाभ्यां तत्त्राणं विहितं मया। एक गोपी श्रीकृष्ण बनकर कहने लगी - तुम लोग आँधी-पानी से मत डरो, मैंने उससे बचने की सारी व्यवस्था कर दी है। यों कहकर वह गोपी गोवर्धन-धारण का अनुकरण करती हुई एक हाथ से अपनी ओढ़नी को ऊपर उठाकर उसे तानकर खड़ी हो गयी।।20।। आरुह्यैका पदाऽऽक्रम्य शिरस्याहापरं नृप। राजा परीक्षित! एक गोपी कालिय नाग बनी तो दूसरी कोई गोपी श्रीकृष्ण बनकर पैर से ठोकर मारकर और उसके सिर पर चढ़कर बोली - ‘अरे दुष्ट सर्प! तू यहाँ से चला जा। मैं दुष्टों को दण्ड देने के लिये ही आविर्भूत हुआ हूँ।।21।। तत्रैकोवाच हे गोपा दावाग्निं पश्यतोल्बणम्। उसी समय एक गोपी कृष्ण बनकर दावानल से डरे हुए गोपों का अनुकरण करने वाली कई गोपियों से बोली - हे गोपो! देखो वन में भयंकर दावानल जल उठा है; तुम लोग डरो मत, तुरन्त अपनी आँखें मूँद लो। मैं अनायास ही तुम लोगों की रक्षा कर लूँगा।।22।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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