रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 187

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

दूसरा अध्याय

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इत्यन्मुत्तवचोगोप्य: कृष्णान्वेषणकातरा:।
लीला भगवतस्तास्ता ह्यनुचक्रुस्तदात्मिका:।।14।।

परीक्षित! इस प्रकार पागलों की भाँति प्रलाप करती हुई व्रजसुन्दरियाँ भगवान श्रीकृष्ण को ढूँढती हुई विरह दुःख के कारण कातर और असमर्थ हो गयीं। तब उनकी कृष्ण तन्मयता फिर बढ़ी और वे अपने को भगवान श्रीकृष्ण ही मानकर भगवान की विभिन्न लीलाओं का अनुकरण करने लगीं।।14।।

कस्याश्चित्‌ पूतनायन्त्या: कृष्णायन्त्यपिबत्‌ स्तनम्‌।
तोकयित्वा रुदत्यन्या पदाहञ्छकटायतीम्‌।।15।।

श्रीकृष्णलीला का अनुकरण करने वाली एक गोपी पूतना बन गयी, दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसका स्तनपान करने लगी। एक गोपी छकड़ा बन गयी तो दूसरी बालकृष्ण बनकर रोते हुए उसको चरण की ठोकर मारकर उलट दिया।।15।।

दैत्यायित्वा जहारान्यामेका कृष्णार्भभावनाम्‌।
रिंगयामास काप्यङ्‌घ्नी कर्षन्ती घोषनि:स्वनै:।।16।।

कोई एक गोपी तृणावर्त दैत्य बन गयी और बालकृष्ण बनी हुई दूसरी गोपी का हरण करने का भाव दिखाने लगी। किसी गोपी ने अपने पैरों की पायजेब की मधुर ध्वनि को श्रीकृष्ण की किंकिणी-ध्वनि समझकर अपने को शिशु कृष्ण मान लिया और दोनों चरणों को भूमि पर घसीट-घसीट कर रेंगने लगी - भगवान की मधुर बकैयाँ चलने की लीला का अनुकरण करने लगी।।16।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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