यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दउपशमइसी पर पुनः बल देते हैं कि जिस परमात्मा से सभी प्राणियों की उत्पत्ति हुई है, जो सर्वत्र व्याप्त है, स्वभाव से उत्पन्न हुई क्षमता के अनुसार उसे भलीभाँति पूजकर मानव परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अर्थात् निश्चित विधि से एक परमात्मा का चिन्तन ही धर्म है। धर्म में प्रवेश किसको है? इसे करने का अधिकार किसे है? इसे स्पष्ट करते हुए योगेश्वर ने बताया कि-“अर्जुन! अत्यन्त दुराचारी भी यदि अनन्य भाव से मुझे भजता है (अनन्य अर्थात् अन्य न), मुझे छोड़कर अन्य किसी को भी न भजकर केवल मुझे भजता है तो ‘क्षिप्रं भवति धर्मात्मा’-वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है, उसकी आत्मा धर्म से संयुक्त हो जाती है।” अतः श्रीकृष्ण के अनुसार धर्मात्मा वह है, जो एक परमात्मा में अनन्य निष्ठा से लग गया है। धर्मात्मा वह है जो एक परमात्मा की प्राप्ति के नितय कर्म का आचरण करता है। धर्मात्मा वह है, जो स्वभाव से नियत क्षमता के अनुसार परमात्मा की शोध में संलग्न है। अन्त में कहते हैं कि ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरण व्रज।’- अर्जुन! सारे धर्मों की चिन्ता छोड़कर एक मेरी शरण में हो जा। अतः एक परमात्मा के प्रति समर्पित व्यक्ति की धार्मिक है। एक परमात्मा में श्रद्धा स्थिर करना ही धर्म है। उस एक परमात्मा की प्राप्ति की निश्चित क्रिया को करना धर्म है। इस स्थिति को प्राप्त महापुरुषख् आत्मतृप्त महापुरुषों का सिद्धान्त ही सृष्टि में एकमात्र धर्म है। उनकी शरण में जाना चाहिये कि उन महापुरुषों ने कैसे उस परमात्मा को पाया? किस मार्ग से चले? वह मार्ग सदा एक ही है, उस मार्ग से चलना धर्म है।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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