यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दषोडश अध्यायतस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ। इसलिये अर्जुन! तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में कि मैं क्या करूँ, क्या न करूँ?-इसकी व्यवस्था में शास्त्र ही एक प्रमाण है। ऐसा जानकर शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्म को ही तुझे करना योग्य है। अध्याय तीन में भी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ‘नियतं कुरु कर्म त्वं’-नियत कर्म पर बल दिया और बताय कि यज्ञ की प्रक्रिया ही वह नियत कर्म है और वह यज्ञ आराधना की विधि-विशेष का चित्रण है, जो मन का सर्वथा निरोध करके शाश्वत ब्रह्म में प्रवेश दिलाता है। यहाँ उन्होंने बताया कि काम, क्रोध और लोभ नरक के तीन प्रमुख द्वार हैं। इन तीनों को त्याग देने पर ही उस कर्म का (नियत कर्म का) आरम्भ होता है, जिसे मैंने बार-बार कहा, जो परमश्रेय-परमकल्याण दिलानेवाला आचरण है। बाहर सांसारिक कार्यों में जो जितना व्यस्त है, उतना ही अधिक काम, क्रोध और लोभ उसके पास सजा-सजाया मिलता है। कर्म कोई वस्तु है कि काम, क्रोध और लोभ को त्याग देने पर ही उसमें प्रवेश मिलता है, कर्म आचरण में ढल पाता है। जो उस विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से आचरण करता है, उसके लिये सुख, सिद्धि अथवा परमगति कुछ भी नहीं है। अब कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही एकमात्र प्रमाण है। अतः शास्त्रविधि के ही अनुसार तुझे कर्म करना उचित है और वह शास्त्र है ‘गीता’।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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