यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 708

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

षोडश अध्याय

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।24।।

इसलिये अर्जुन! तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में कि मैं क्या करूँ, क्या न करूँ?-इसकी व्यवस्था में शास्त्र ही एक प्रमाण है। ऐसा जानकर शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्म को ही तुझे करना योग्य है।

अध्याय तीन में भी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ‘नियतं कुरु कर्म त्वं’-नियत कर्म पर बल दिया और बताय कि यज्ञ की प्रक्रिया ही वह नियत कर्म है और वह यज्ञ आराधना की विधि-विशेष का चित्रण है, जो मन का सर्वथा निरोध करके शाश्वत ब्रह्म में प्रवेश दिलाता है। यहाँ उन्होंने बताया कि काम, क्रोध और लोभ नरक के तीन प्रमुख द्वार हैं। इन तीनों को त्याग देने पर ही उस कर्म का (नियत कर्म का) आरम्भ होता है, जिसे मैंने बार-बार कहा, जो परमश्रेय-परमकल्याण दिलानेवाला आचरण है। बाहर सांसारिक कार्यों में जो जितना व्यस्त है, उतना ही अधिक काम, क्रोध और लोभ उसके पास सजा-सजाया मिलता है। कर्म कोई वस्तु है कि काम, क्रोध और लोभ को त्याग देने पर ही उसमें प्रवेश मिलता है, कर्म आचरण में ढल पाता है। जो उस विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से आचरण करता है, उसके लिये सुख, सिद्धि अथवा परमगति कुछ भी नहीं है। अब कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही एकमात्र प्रमाण है। अतः शास्त्रविधि के ही अनुसार तुझे कर्म करना उचित है और वह शास्त्र है ‘गीता’।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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