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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
पंचदश अध्याय
श्रीकृष्ण के अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र अन्न है, जिससे आत्मा पूर्ण तृप्त हो जाता है फिर कभी अतृप्त नहीं होता। शरीर के पोषक प्रचलित अन्नों को योगेश्वर ने आहार की संज्ञा दी है (युक्ताहार.......)। वास्तविक अन्न परमात्मा है। बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा की चार विधियों से निकलकर ही वह अन्न परिपक्व होता है। इसी को अनेक महापुरुषों ने नाम, रूप, लीला और धाम कहा है। पहले नाम का जप होता है, क्रमशः हृदय-देश में इष्ट का स्वरूप प्रकट होने लगता है, तत्पश्चात् उसकी लीला का बोध होने लगता है कि वह ईश्वर किस प्रकार कण-कण में व्याप्त है? किस प्रकार वह सर्वत्र कार्य करता है? इस प्रकार हृदय-देश में क्रियाकलापों का दर्शन ही लीला है (बाहर की रामलीला-रासलीला नहीं) और उस ईश्वरीय लीला की प्रत्यक्ष अनुभूति करते हुए जब मूललीलाधारी का स्पर्श मिलता है, तब धाम की स्थिति आती है। उसे जानकर साधक उसी में प्रतिष्ठित हो जाता है। उसमें प्रतिष्ठित होना और परावाणी की परिपक्वावस्था में परब्रह्म का स्पर्श कर उसमें स्थित होना दोनों साथ-साथ होता है।
इस प्रकार प्राण और अपान अर्थात् श्वास और प्रश्वास से युक्त होकर चार विधियों से अर्थात् बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और क्रमशः उत्थान होते-होते परा की पूर्तिकाल में वह ‘अन्न’- ब्रह्म परिपक्व हो जाता है, मिल भी जाता है, पच भी जाता है और पात्र भी परिपक्व ही है।
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