यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 670

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

पंचदश अध्याय


श्रीकृष्ण के अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र अन्न है, जिससे आत्मा पूर्ण तृप्त हो जाता है फिर कभी अतृप्त नहीं होता। शरीर के पोषक प्रचलित अन्नों को योगेश्वर ने आहार की संज्ञा दी है (युक्ताहार.......)। वास्तविक अन्न परमात्मा है। बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा की चार विधियों से निकलकर ही वह अन्न परिपक्व होता है। इसी को अनेक महापुरुषों ने नाम, रूप, लीला और धाम कहा है। पहले नाम का जप होता है, क्रमशः हृदय-देश में इष्ट का स्वरूप प्रकट होने लगता है, तत्पश्चात् उसकी लीला का बोध होने लगता है कि वह ईश्वर किस प्रकार कण-कण में व्याप्त है? किस प्रकार वह सर्वत्र कार्य करता है? इस प्रकार हृदय-देश में क्रियाकलापों का दर्शन ही लीला है (बाहर की रामलीला-रासलीला नहीं) और उस ईश्वरीय लीला की प्रत्यक्ष अनुभूति करते हुए जब मूललीलाधारी का स्पर्श मिलता है, तब धाम की स्थिति आती है। उसे जानकर साधक उसी में प्रतिष्ठित हो जाता है। उसमें प्रतिष्ठित होना और परावाणी की परिपक्वावस्था में परब्रह्म का स्पर्श कर उसमें स्थित होना दोनों साथ-साथ होता है।

इस प्रकार प्राण और अपान अर्थात् श्वास और प्रश्वास से युक्त होकर चार विधियों से अर्थात् बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और क्रमशः उत्थान होते-होते परा की पूर्तिकाल में वह ‘अन्न’- ब्रह्म परिपक्व हो जाता है, मिल भी जाता है, पच भी जाता है और पात्र भी परिपक्व ही है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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