विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दपंचदश अध्यायश्रीभगवानुवाच अर्जुन! ‘ऊध्र्वमूलम्’-ऊपर को परमात्मा ही जिसका मूल है, ‘अधःशाखम्’- नीचे प्रकृति ही जिसकी शाखाएँ, ऐसे संसाररूपी पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं। (वृक्ष तो अ-श्वः अर्थात् कल तक भी रहनेवाला नहीं, जब चाहे कट जाय; किन्तु है अविनाशी।) श्रीकृष्ण के अनुसार अविनाशी दो हैं-एक संसाररूपी वृक्ष अविनाशी और दूसरा उससे भ्ज्ञी परे परम अविनाशी। वेद इस अविनाशी संसार-विटप के पत्ते कहे गये हैं। जो पुरुष इस संसाररूपी वृक्ष को देखते हुए विदित कर लेता है, वह वेद का ज्ञाता है। जिसने उस संसार-वृक्ष को जाना है, उसने वेद को जाना है, न कि ग्रन्थ पढ़नेवाला। पुस्तक पढ़ने से तो उधर बढ़ने की प्रेरणा मात्र मिलती है। पत्तों के स्थान पर वेद की क्या आवश्यकता है? वस्तुतः पुरुष भटकते-भटकते जिस अन्तिम कोपल अर्थात् अन्तिम जन्म को लेता है, वहीं से वेद के वे छन्द (जो कल्याण का सृजन करते हैं) प्रेरणा देते हैं, वहीं से उनका उपयोग है। वहीं से भटकाव समाप्त हो जाता है। वह स्वरूप की ओर घूम हाता है। तथा-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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