यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 632

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्दश अध्याय

इस प्रकार सब कुछ बता लेने पर भी प्रस्तुत अध्याय चौदह में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं- अर्जुन! उन ज्ञानों में भी परम उत्तम ज्ञान को मैं फिर भी तेरे लिये कहूँगा। योगेश्वर उसी की पुनरावृत्ति करने जा रहे हैं; क्योंकि ‘सास्त्र सुचिन्तित पुनि पुनि देखिअ।’[1]- भली प्रकार चिन्तन किया हुआ शास्त्र भी बार-बार देखना चाहिये। इतना ही, ज्यों-ज्यों आप साधन-पथ पर अग्रसर होंगे, ज्यों-ज्यों उस इष्ट में प्रवेश पाते जायेंगे, त्यों-त्यों ब्रह्म से नवीन-नवीन अनुभूति मिलेगी। यह जानकारी सद्गुरु महापुरुष ही देते हैं, इसलिये श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं फिर भी कहूँगा।

सुरति (स्मृति) ऐसा पटल है, जिस पर संस्कारों का अंकन सदैव होता रहता है। यदि पथिक को इष्ट में प्रवेश दिलानेवाली जानकारी धूमिल पड़ती है तो उस स्मृति-पटल पर प्रकृति अंकित होने लगती है, जो विनाश का कारण है। इसलिये पूर्तिपर्यन्त साधक को इष्ट-सम्बन्धी जानकारी दुहराते रहना चाहिये। आज स्मृति जीवन्त है, किन्तु अग्रेतर अवस्थाओं में प्रवेश मिलने के साथ यह अवस्था नहीं रह जायेगी। इसीलिये ‘पूज्य महाराज जी’ कहा करते थे कि ब्रह्मविद्या का चिन्तन रो करो, एक माला रोज घुमाओ-जो चिन्तन से घुमायी जाती है, बाहर की माला नहीं।

Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. रामचरिमानस, 3/36/8

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः