यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 628

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

त्रयोदश अध्याय

निष्कर्ष-

गीता के आरम्भ में धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र का नाम तो लिया गया; किन्तु वह क्षेत्र वस्तुतः है कहाँ?- वह स्थल बताना शेष था, जिसे स्वयं शास्त्रकार ने प्रस्तुत अध्याय में स्पष्ट किया- कौन्तेय! यह शरीर ही एक क्षेत्र है। जो इसको जानता है, वह क्षेत्रज्ञ है। वह इसमें फँसा नहीं बल्कि निर्लेप है। इसका संचालक है। “अर्जुन! सम्पूर्ण क्षेत्रों में मैं भी क्षेत्रज्ञ हूँ।”- अन्य महापुरुषों से अपनी तुलना की। इससे स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण भी एक योगी थे; क्योंकि जो जानता है वह क्षेत्रज्ञ है, ऐसा महापुरुषों ने कहा है। मैं भी क्षेत्रज्ञ हूँ अर्थात् अन्य महापुरुषों की तरह मैं भी हूँ।

उन्होंने क्षेत्र जैसा है, जिन विकारोंवाला है तथा क्षेत्रज्ञ जिन प्रभावोंवाला है, उस पर प्रकाश डाला। मैं ही कहता हूँ-ऐसी बात नहीं है, महर्षियों ने भी यही कहा है। वेद के छन्दों में भी उसी को विभाजित करके दर्शाया गया है। ब्रह्मसूत्र में भी वही मिलता है।

शरीर (जो क्षेत्र है) क्या इतना ही है, जितना दिखायी देता है? इसके होने के पीछे जिनका बहुत बड़ा हाथ है, उन्हें गिनाते हुए बताया कि अष्टधा मूल प्रकृति, अव्यक्त प्रकृति, दस इन्द्रियाँ और मन, इन्द्रियाँ के पाँचों विषय, आशा, तृष्णा और वासना-इस प्रकार इन विकारों का सामूहिक मिश्रण यह शरीर है। जब तक ये रहेंगे, तब तक श्रीर किसी-न-किसी रूप में रहेगा ही। यही क्षेत्र है, जिसमें बोया भला-बुरा बीज संस्कार रूप में उगता है। जो इसका पार पा लेता है,वह क्षेत्रज्ञ है। क्षेत्रज्ञ का स्वरूप बताते हुए उन्होंने ईश्वरीय गुणधर्मों पर प्रकाश डाला और कहा कि क्षेत्रज्ञ इस क्षेत्र का प्रकाशक है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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