यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 601

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

त्रयोदश अध्याय


क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्वि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोज्र्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।2।।

हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही जान अर्थात् मैं भी क्षेत्रज्ञ हूँ। जो इस क्षेत्र को जानता है, वह क्षेत्रज्ञ है- ऐसा उसे साक्षात् जानने वाले माहपुरुष कहते हैं और श्रीकृष्ण कहते हैं कि- मैं भी क्षेत्रज्ञ हूँ अर्थात् श्रीकृष्ण भी एक योगेश्वर ही थे। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ अर्थात् विकारसहित प्रकृति और पुरुष को तत्त्व से जानना ही ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है अर्थात् साक्षात्कार सहित इनकी जानकारी का नाम ज्ञान है। कोरी बहहस का नाम ज्ञान नहीं है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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