यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 568

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

एकादश अध्याय

निष्कर्ष-

इस अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने कहा- भगवन्! आपकी विभूतियों को मैंने विस्तार से सुना, जिससे मेरा मोह नष्ट हो गया, अज्ञान का शमन हो गया; किन्तु जैसा आपने बताया कि मैं सर्वत्र हूँ, इसे मैं प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ। यदि मेरे द्वारा देखना सम्भव हो, तो कृपया उसी स्वरूप को दिखाइये। अर्जुन प्रिय सखा था, अनन्य सेवक था। अतएव योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कोई प्रतिवाद न कर तुरन्त दिखाना प्रारम्भ किया कि अब मेरे ही अन्द खड़े सप्तर्षि और उनसे भी पूर्व होनेवाले ऋषियों को देख, ब्रह्मा और विष्णु को देख, सर्वत्र फैले मेरे तेज को देख, मेरे ही शरीर में एक स्थान पर खड़े तू चराचर जगत् को देख; किन्तु अर्जुन आँखें मलता ही रह गया।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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