यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 559

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

एकादश अध्याय

किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त-
मिच्छासि त्वां द्रष्टृमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन
सहस्त्रबाहो भव विश्वमूर्ते।।46।।

मैं आपको वैसे ही अर्थात् पहले की ही तरह सिर पर मुकुट धारण किये हुए, हाथ में गदा और चक्र लिये हुए देखना चाहता हूँ। इसलिये हे विश्वरूपे! हे सहस्त्रबाहो! आप अपने उसी चतुर्भुज स्वरूप में होइए। कौन-सा रूप देखना चाहा? चतुर्भुज रूप! अब देखना है कि चतुर्भुज रूप है क्या?-

भगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं
रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं
यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।।47।।

इस प्रकार अर्जुन की प्रार्थना सुनकर श्रीकृष्ण बोले-अर्जुन! मैंने अनुग्रहपूर्वक अपनी योगशक्ति के प्रभाव से अपना परम तेजोमय, सबका आदि और सीमारहित विश्वरूप तुझे दिखाया है, जिसे तेरे सिवाय दूसरे किसी ने पहले कभी नहीं देखा।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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