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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
एकादश अध्याय
‘पूज्य महाराज जी’ कहते थे- “हो, जिस परमात्मा की हमें चाह है, जिस सतह पर हम खड़े हैं उस सतह पर स्वयं उतरकर जब तक आत्मा से जागृत नहीं हो जाता, तब तक सही मात्रा में साधन का आरम्भ नहीं होता। उसके बाद जो कुछ साधक से पार लगता है, वह उसकी देन है। साधक तो निमित्तमात्र होकर उसके संकेत और आदेश पर चलता भर रहता है। साधक की विजय उसकी देन है। ऐसे अनुरागी के लिये ईश्वर अपनी दृष्टि से देखता है, दिखाता है और अपने स्वरूप तक पहुँचाता है।” यही श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरे द्वारा मारे हुए इन बैरियों को मार। निश्चय ही तुम्हारी विजय होगी, मैं जो खड़ा हूँ।
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