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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
दशम अध्याय
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
ज्योऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्वं सत्ववतामहम्।।36।।
तेजस्वी पुरुषों का तेज मैं हूँ। जुए में छल करनेवालों का छल मैं हूँ। तब तो अच्छा है कि जुआ खेलें, उसमें कलबल-छल करें, वहीं भगवान हैं। नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। यह प्रकृति ही एक जुआ है। यही ठगिनी है। इस प्रकृति के द्वन्द्व से निकलने के लिये दिखावा छोड़कर छिपाव के साथ गुप्त रूप से भजन करना ही छल है। छल है तो नहीं, किन्तु बचाव के लिये आवश्यक है। जड़भरत की तरह उन्मत्त, अन्धे-बहरे और गूँगे की तरह हृदय से जानकार होते हुए भी बहार से ऐसे रहें कि अनजान हों, सुनते हुए भी न सुनें, देखते हुए भी न देखें। छिपकर ही भजन का विधान है, तभी साधक प्रकृति-पुरुष के जुए में पार पाता है। जीतनेवालों की विजय मैं हूँ और व्यवसायियों का निश्चय (जिसे अध्याय दो, श्लोक इकतालीस में कह आये हैं-इस योग में निश्चयात्मक क्रिया एक है, बुद्धि एक ही है, दिशा एक ही है ऐसी), क्रियात्मिका बुद्धि मैं हूँ। सात्विक पुरुषों का तेज और ओज मैं हूँ।
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