यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 510

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

दशम अध्याय

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
ज्योऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्वं सत्ववतामहम्।।36।।


तेजस्वी पुरुषों का तेज मैं हूँ। जुए में छल करनेवालों का छल मैं हूँ। तब तो अच्छा है कि जुआ खेलें, उसमें कलबल-छल करें, वहीं भगवान हैं। नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। यह प्रकृति ही एक जुआ है। यही ठगिनी है। इस प्रकृति के द्वन्द्व से निकलने के लिये दिखावा छोड़कर छिपाव के साथ गुप्त रूप से भजन करना ही छल है। छल है तो नहीं, किन्तु बचाव के लिये आवश्यक है। जड़भरत की तरह उन्मत्त, अन्धे-बहरे और गूँगे की तरह हृदय से जानकार होते हुए भी बहार से ऐसे रहें कि अनजान हों, सुनते हुए भी न सुनें, देखते हुए भी न देखें। छिपकर ही भजन का विधान है, तभी साधक प्रकृति-पुरुष के जुए में पार पाता है। जीतनेवालों की विजय मैं हूँ और व्यवसायियों का निश्चय (जिसे अध्याय दो, श्लोक इकतालीस में कह आये हैं-इस योग में निश्चयात्मक क्रिया एक है, बुद्धि एक ही है, दिशा एक ही है ऐसी), क्रियात्मिका बुद्धि मैं हूँ। सात्विक पुरुषों का तेज और ओज मैं हूँ।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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