विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दसप्तम अध्यायचतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! ‘सुकृतिनः’-उत्तम अर्थात् नियत कर्म (जिसके परिणाम में श्रेय की प्राप्ति हो, उसको) करनेवाले ‘अर्थार्थी’ अर्थात् सकाम, ‘आर्तः’ अर्थात् दुःखसे दूटने की इच्छावाले, ‘जिज्ञासुः’ अर्थात् प्रत्यक्ष रूप से जानने की इच्छावाले और ‘ज्ञानी’ अर्थात् जो प्रवेश की स्थिति में हैं-ये चार प्रकार के भक्तजन मुझे भजते हैं। ‘अर्थ’ वह वस्तु है, जिससे हमारे शरीर अथवा सम्बन्धों की पूर्ति हो। इसलिये अर्थ, कामनाएँ सब कुछ पहले तो भगवान द्वारा पूर्ण होती हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं ही पूर्ण करता हूँ; किन्तु इतना ही वास्तविक ‘अर्थ’ नहीं है। आत्मिक सम्पत्ति ही स्थिर सम्पत्ति है, यही अर्थ है।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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