विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दषष्ठम अध्यायतपस्वी अभी योग को ढालने में प्रयत्नशील है। कर्मी केवल कर्म जानकर करता भर है। ये गिर भी सकते हैं; क्योंकि इन दोनों में न समर्पण है और न अपनी हानि-लाभ देखने की क्षमता; किन्तु ज्ञानी योग की परिस्थितियों को जानता है, अपनी शक्ति समझता है, उसकी जिम्मेदारी उसी पर है और निष्काम कर्मयोगी तो इष्ट के ऊपर अपने को फेंक चुका है, वह इष्ट सँभालेगा। परमकल्याण के पर पर ये दोनों ठीक चलते हैं; किन्तु जिसका भार वह इष्ट सँभालता है, वह इन सबसे श्रेष्ठ है; क्योंकि प्रभु ने उसे ग्रहण कर लिया है। उसका हानि-लाभ वह प्रभु देखता है। इसलिये योगी श्रेष्ठ है। अतः अर्जुन! तू योगी बन। समर्पण के साथ योग का आचरण कर। योगी श्रेष्ठ है; किन्तु उनसे भी वह योगी सर्वश्रेष्ठ है, जो अन्तरात्मा से लगता है। इसी पर कहते हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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