यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दपंचम अध्यायदाहिने-बायें, इधर-उधर चकपक न देखें। नाक की डाँड़ी पर सीधी दृष्टि रखते हुए (कहीं नाक ही न देखने लगें) नासिका के अन्दर विचरण करनेवाले प्राण और अपान वायु को सम करके अर्थात् दृष्टि तो वहाँ स्थिर करें और सुरत को श्वास में लगा दें कि कब श्वास भीतर गयी? कितना रुकी? (लगभग आधा सेकण्ड रुकती है, प्रयास करके न रोकें।) कब श्वास बाहर निकली? कितनी देर तक बाहर रही? कहने की आवश्यकता नहीं कि श्वास में उठनेवाली नामध्वनि सुनायी पड़ती रहेगी। इस प्रकाश श्वास-प्रश्वास पर जब सुरत टिक जायेगी तो धीरे-धीरे श्वास अचल, स्थिर ठहर जायेगी, सम हो जायेगी। न भीतर से संकल्प उठेंगे और न बाह्य संकल्प अन्दर टकराव कर पायेंगे। बाहर के भोगों का चिन्तन तो बाहर ही त्याग दिया गया था, भीतर भ्ज्ञी संकल्प नहीं जाग्रत होंगे। सुरत एकदम खड़ी हो जाती है तैलधारावत्। तेल की धारा पानी की तरह टप-टप नहीं गिरती, जब तक गिरेगी धारा ही गिरेगी। इसी प्रकार प्राण और अपान की गति एकदम सम, स्थिर करके इन्द्रियों, मन और बुद्धि को जिसने जीत लिया है, इच्छा, भय और क्रोध से रहित, मननशीलता की चरम सीमा पर पहुँचा हुआ मोक्षपरायण मुनि सदा ‘मुक्त’ ही है। मुक्त होकर वह कहाँ जाता है? क्या पाता है? इस पर कहते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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